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सार्वजनिक निधियाँ

नहीं रखता। पहली तीन निधियाँ न मैंने खुद एकत्र की थीं, और न वे समाजमें मेरी जो प्रतिष्ठा और साख है, उसके बलपर एकत्र की गई थी। उनका संग्रह श्री बैकरने किया था, जिन्हें मैं तब भी भलीभाँति जानता था और जिनको मेरे नामका उपयो करनेका पूरा अधिकार था। मैं यह भी जानता हूँ कि जो भी धन प्राप्त हुआ उसे वे अपनी असन्दिग्ध साख और अपनी सेवाओंसे मिली कीतिके बलपर स्वयं भी प्राप्त कर सकते थे। जो पैसा जहाँसे मिला और जिस मदमें लगाया गया, उसका पूरा हिसाब रखा गया था, और अगर मुझे ठीक याद है तो ये हिसाब प्रकाशित भी किये गये थे। लेकिन ये रकमें तो बहुत छोटी-छोटी थीं।

पत्र-लेखक भाईने तो तिलक स्वराज्य कोषकी चर्चा नहीं की है, लेकिन मैंने ऊपर उसका नाम लिया है। इसके सम्बन्धमें मुझे बार-बार शिकायतें सुननेको मिली है। इतनी बड़ी सार्वजनिक निधि इससे पहले कभी इकट्ठी नहीं की गई थी। लेकिन, इसके सम्बन्धमें मेरा मन बिलकुल आश्वस्त है। उस निधिके व्ययकी बारीकसे-बारीक जाँचसे भी यही प्रकट होगा कि उसकी व्यवस्थामें आम तौरपर कोई असावधानी नहीं बरती गई है, और जितने पैसेकी हानि व्यापारिक पेढ़ियोंमें होती है, उसकी तुलनामें इसमें बहुत ही कम बर्बादी हुई है। व्यापारिक पेढ़ियाँ आमतौरपर १० प्रतिशत तो बट्टखातेमें डाल देती हैं। दक्षिण आफ्रिकामें तो मैंने कुछ ऐसी बड़ी-बड़ी पेढियां भी देखी हैं, जिनके लिए २९ प्रतिशततक बट्टेखाते डाल देना सामान्य बात थी। तिलक स्वराज्य कोषके प्रबन्धमें ऐसी बर्बादी तो कतई नहीं हुई है, जो १० प्रतिशततक पहुँच सके; और मुझे तो लगता है कि कुल बर्बादी २ प्रतिशततक भी नहीं पहुँच पायेगी। जो कोषाध्यक्ष काम कर रहा था, वह हर खर्चकी रसीद लेनका आग्रह रखता था। समय-समयपर हिसाबकी जाँच होती रही है, और हिसाब प्रकाशित भी होते रहे है। लेकिन, साथ ही मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि जिन कांग्रेस कार्यकर्ताओंके हाथमें कोषका पैसा रहा है, उनमें से कुछ-एकने अमानतमें खयानत भी की है। किन्तु जहाँ धनका वितरण सैकड़ों हाथोंसे होता है, वहाँ इससे बचा भी नहीं जा सकता। इस हालतमें जो-कुछ किया जा सकता है वह यही कि यह ध्यान रखा जाये कि शीर्षस्थ लोग ढिलाई या असावधानी न बरतें। मुझे आश्चर्य तो इस बातपर होता है कि हम कुल मिलाकर जितना दुरुस्त हिसाब दे पाये हैं, वह सम्भव कैसे हुआ!

अब जलियाँवाला कोषको लीजिए। इसमें भी बिलकुल सही-सही हिसाब रखा गया है। समय-समयपर हिसाब प्रकाशित भी किये गए हैं। पंडित मालवीयजीको उस कोषकी आत्मा कहा जा सकता है। उस स्थानकी देख-भाल बहुत अच्छी तरह होती है, पहले वहाँ कूड़ा-करकटके ढेर लगे रहते थे, किन्तु अब उसे एक सुन्दर उद्यानका रूप दिया गया है। लेकिन ऐसी शिकायतें की गई हैं कि अबतक कोई उपयुक्त स्मारक नहीं बनाया गया है, और पैसा बेकार पड़ा हुआ है। अगर यह शिकायत कोई शिकायत हो सकती हो, तो मुझे मानना पड़ेगा कि इसकी जवाबदेही सबसे ज्यादा शायद मुझपर ही है। स्मारककी योजना तैयार हो चुकी है, लेकिन मुझे लगा कि