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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब यह कोष एकत्र किया गया था, उसके तुरन्त बाद परिस्थितियाँ बहुत बदल गई। यह बाग ही, किसी-न-किसी तरहसे विभिन्न पक्षोंके बीच एक विवादका विषय बना रहा है। मुझे नहीं मालूम कि अब भी झगड़ा समाप्त हुआ माना जा सकता है अथवा नहीं। अपेक्षा तो यह थी कि यह स्मारक ठोस साम्प्रदायिक एकताका स्मारक होगा—एक बड़ी विपत्तिके गर्भसे उद्भूत एक महान विजयका प्रतीक होगा : ऐसा ही होना भी चाहिए। १३ तारीखके उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन हिन्दू, मुसलमान और सिखोंका जो रक्त साथ मिलकर बहा, ऐसा विश्वास था कि वह उनकी अखण्ड एकताका प्रतीक होगा। लेकिन आज वह एकता कहाँ है? जब हम फिर एक हो जायेंगे तब स्मारक बनानेकी बात सोचनेका भी समय आयगा। जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, फिलहाल मेरे लिए तो इतना ही काफी है कि सँकरी, घुमावदार और गन्दी गलियों और घनी आबादीवाले अमृतसर नगरमें यह भाग एक छोटेसे फेफड़ेकी तरह मौजूद है।

अब मै देशबन्धु स्मारक कोषकी बात लेता हूँ। इसके कोषाध्यक्ष अकेले ही कई आदमियोंके बराबर है। लेकिन, मैं जानता हूँ कि यह कोष हमेशा उन्हींके हाथों में ही रहेगा। अन्ततः, यह ट्रस्टियोंके हाथमें जायगा ही। इसके पाँच मूल ट्रस्टी तो दिवंगत देशभक्तके ही नामजद किये हुए हैं। उनमें से हरएकका समाजमें अपना स्थान है और ऐसी प्रतिष्ठा है, जिसको कायम रखने के लिए उन्हें बराबर सतर्क रहना है। उनमें से कुछ लोग धनाढ्य हैं। इन पाँच मूल ट्रस्टियोंने दो और ट्रस्टियोंको शामिल कर लिया है, ये लोग भी एक नहीं बल्कि अनेक सार्वजनिक न्यासोंसे सम्बद्ध हैं। उनमें से एक तो है सर नीलरतन सरकार, जो कलकत्तेके सबसे बड़े चिकित्सक है, और दूसरे स्वयं स्वर्गीय देशबन्धुके चचेरे भाई श्री एस॰ आर॰ दास है जो बंगालके एडवोकेट जनरल हैं। अगर ये सात ट्रस्टी अपने गुणों और योग्यताका अच्छा परिचय न दे सकते हों और उन्हें जो न्यास सौंपा गया है, उसके साथ न्याय नहीं कर सकते हों तो मुझे भारतमें किसी भी न्यासके सफल होनेकी कोई आशा दिखाई नहीं देती। इमारत तो है ही और मुझे मालूम है कि इस ट्रस्टके दूसरे चिकित्सक ट्रस्टी डा॰ विधानचन्द्र राय, जो प्रथम कोटिके चिकित्सक है, जिस कामके लिए इस इमारतका उपयोग होना है उसके लिए इसका उपयोग करनेकी योजना बना रहे है। मेरे कानमें यह बात भी डाली गई है चूंकि श्री एस॰ आर॰ दास एडवोकेट जनरल हैं, इसलिए वे ट्रस्टी नहीं बन सकते। इस सम्बन्ध मुझे कानूनका कोई ज्ञान नहीं है। जब वे इस ट्रस्टमें शामिल हुए उस समय भी मैं जानता था कि वे बंगालके एडवोकेट-जनरल है; लेकिन अगर इसमें चूक हो गई हो तो उनके स्थानपर कोई दुसरा ट्रस्टी नियक्त किया जायेगा, जिसकी ख्याति उतनी ही अच्छी होगी जितनी कि उनकी है। अगर श्री एस॰ आर॰ दास ट्रस्टी बने रह सकते हों तो मैं उन्हें इतनी अच्छी तरह जानता हूँ और पाठकोंको आश्वस्त कर सकता कि वे इस ट्रस्टको पूरी तरह सफल बनाने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखेंगे। इंग्लैंडके लिए रवाना होनेके वक्ततक उन्होंने ट्रस्टको अपना समय और ध्यान दिया, लेकिन मुझे पूरा