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भारतीय ईसाइयोंके लिए

यकीन है कि मूल ट्रस्टियोंमें से हरएक दिवंगत देशभक्तकी स्मृतिके प्रति किसीसे कम आस्थावान नहीं रहेगा और वे सबके-सब प्रस्तावित अस्पताल और नोंके प्रशिक्षणकेन्द्रको उनकी स्मृतिके अनुरूप बनाकर दिखायें। अखिल बंगाल देशबन्धु स्मारक कोषके सम्बन्धमें तो मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ।

अब अखिल भारतीय स्मारक कोषकी बात लीजिए। मैं खुद इसका एक ट्रस्टी हूँ। इसका उद्देश्य वह चीज है, जो मुझे सबसे अधिक प्रिय है। मेरे साथी ट्रस्टी लोग जनताके बीच उतने ही प्रसिद्ध है, जितना कि कोई भी लोकसेवी व्यक्ति हो सकता है। मन्त्री तपे-परखे सेनानी है, और ऐसे ही कोषाध्यक्ष महोदय भी है। ट्रस्टके मन्त्री कांग्रेसके भी मन्त्री है और इसी तरह इसके कोषाध्यक्ष कांग्रेसके भी कोषाध्यक्ष है।

लेकिन, अन्तमें मैं जनताको आगाह कर दूँ कि सार्वजनिक निधिकी सुरक्षा जितनी उस निधिके कर्ता-धर्ता लोगोंकी ईमानदारीपर निर्भर करती है, उससे कहीं अधिक जनताकी प्रबुद्ध चौकसीपर निर्भर करती है। ट्रस्टियोंका पूरा ईमानदार होना जहाँ एक अनिवार्य आवश्यकता है वहीं ट्रस्टके विषयमें जनताकी उदासीनता अपराध भी है। अज्ञानपूर्ण टीका-टिप्पणीको प्रबुद्ध चौकसी नहीं समझ लेना चाहिए। मुझे आम तौरपर अज्ञानपूर्ण टीका-टिप्पणी ही देखनेको मिली है। मुझे तो यह देखकर खुशी होगी कि लेखा-जोखाका काम समझनेवाले कुछ सार्वजनिक कार्यकर्ता लोग अपना फर्ज मानकर समय-समयपर सार्वजनिक कोषोंकी जाँच करें और कोषके प्रबन्धकोंसे कैफियत तलब करें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०–८–१९२५
 

५०. भारतीय ईसाइयोंके लिए

[अभी कुछ ही दिन हुए मुझे ईसाइयोंकी एक सभामें बोलनेका अवसर मिला[१] था। खयाल यह था कि इस सभामें मुख्यतः भारतीय ईसाई ही आयेंगे, लेकिन जब सभा हुई तो पाया गया कि श्रोताओंमें अधिकांशतः यूरोपीय ईसाई ही हैं। इसलिए मुझे जैसा मैंने सोचा था, उससे अलग ढंगका भाषण देना पड़ा। फिर भी, में नीचे उस भाषणके कुछ अंश दे रहा हूँ, क्योंकि मेरे विचारसे, इस बातमें लोगोंकी रुचि होगी कि जो व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों और परिवेशोंमें इनके बीच रहा है, वह इनके विषयमें क्या सोचता है और क्या महसूस करता है। मो॰ क॰ गांधी]

मुझे याद है जब मैं नौजवान था, उस समय एक हिन्दू ईसाई बन गया था, शहर-भर जानता था कि नवीन धर्ममें दीक्षित होनेके बाद यह संस्कारी हिन्दू ईसाके नामपर शराब पीने लगा, गोमांस खाने लगा और उसने अपना भारतीय लिबास छोड़ दिया। आगे चलकर मुझे मालूम हुआ, मेरे अनेक मिशनरी मित्र तो यही कहते

  1. देखिए "भाषण : ईसाइयोंकी सभामें", ४–८–१९२५।

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