पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/१३

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नौ

(पृष्ठ १९५)। अपनी शक्तिकी सीमाकी इस प्रतीतिके कारण ही उन्होंने डा॰ अन्सारीकी तार द्वारा की गई उस प्रार्थनाको अस्वीकार कर दिया जिसमें उन्होंने दक्षिण सीरियाके मामलेको लेकर लीग ऑफ नेशन्सके हस्तक्षेतकी बात कही थी। उन्होंने १२-११-१९२५ को 'यंग इंडिया' में लिखा : "किसी निवेदनके पीछे जबतक नैतिक अथवा भौतिक बल न हो, तबतक में निवेदन करना बेकार मानता हूँ। नैतिक-बल निवेदकोंके कुछ करने के संकल्पसे, निवेदनको सफल बनानेके लिए कुछ त्यागबलिदान करनेके निश्चयसे, उत्पन्न होता है। यहाँतक कि बच्चे भी इस प्राथमिक नियमको जानते हैं। अपनी बात मनवानेके लिए वे खाना-पीना छोड़ देते है, रोतेचिल्लाते हैं, और शैतान बच्चे तो, माँ अगर उनकी आग्रहपूर्ण मांगें परीन उसे मारनेमें भी नहीं हिचकिचाते। जबतक हम लोग इस नियमको समझकर इसपर अमल करनेके लिए तैयार नहीं है, तबतक किसीसे थोथा निवेदन करनेका परिणाम अधिक बुरा नहीं तो इतना तो होगा ही कि दुनिया कांग्रेसपर हँसेगी और हमपर भी।" (पृष्ठ ४५७)

गांधीजीको अपनी सीमाओंकी सम्यक् प्रतीति थी। उन्होंने कहा : "में तो सिर्फ सत्यका अन्वेषक हूँ—निस्सन्देह मानवीय पूर्णताको प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हूँ और निरन्तर प्रयास करते रहनेसे हममें से हरएक व्यक्ति इस पूर्णताको प्राप्त कर सकता है।" (पृष्ठ ७१)। उन्होंने यह भी कहा कि मैं अपनेको किसी दल-विशेषका नहीं मानता और न यही मानता हूँ कि मेरा कोई दल है-भले ही इसका कारण सिर्फ यही हो कि मैं देखता हूँ कि मेरा रुख और मेरी स्थिति अक्सर बदलती रहती है। वैसे में इन परिवर्तनोंको अपना लगातार विकास ही मानता हूँ (पृष्ठ ९२)। वे अपने जीवनको हमेशा "कार्यमें लगे रहनेके कारण. . .आनन्दमय" मानते थे (पृष्ठ २८१)। उन दिनों जो घटनाएं हो रही थीं, वे उन्हें निराशाजनक मानते थे। उन्होंने डा॰ अन्सारीको लिखा : "जहाँतक नजर जाती है, वहांतक जो-कुछ देखता हूँ, उसको सोचकर मेरा मन दुःख और क्लान्तिसे भर उठता है; और जब मैं अपने अन्तरके उस क्षीण स्वरको सुनता हैं तो अपने चारों ओर प्रज्वलित ज्वालाके बावजूद आशान्वित होकर मुस्करा उठता है।" (पृष्ठ ४५५)। यही वह शक्ति थी जो उन्हें सदा बल देती रही।