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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कुछ आमदनी होती है, सिर्फ इसके चन्दे से ही होती है। यह भेंट-उपहार आदिका लाभ देकर अपना अस्तित्व कायम नहीं रखना चाहता। अगर खुद 'नवजीवन' से ही पाठकों को इसपर खर्च किये अपने पैसेका पूरा मूल्य न मिलता हो तो यह बन्द हो जानेके लिए तैयार बैठा हुआ है। 'नवजीवन' की भेंट उसमें छपी सामग्री ही है। आजकल के सामान्य आधुनिक पत्रोंकी पद्धति मुझे पसन्द नहीं, ऐसा कहने के बजाय उनसे उलटा व्यवहारकरके ही मैं अपनी अल्प शक्तिके अनुसार पत्रकारिताका पदार्थ-पाठ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस प्रयोगमें हिस्सेदार बननेसे क्या 'नवजीवन' के ग्राहकोंको सन्तोष प्राप्त नहीं होता? जिन्हें इससे सन्तोष प्राप्त न होता हो, उनके लिए भी 'नवजीवन' एक पदार्थ-पाठ बने।

'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' ('दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास') 'नवजीवन' के परिशिष्टांकके रूपमें प्रकाशित हुआ,[१] और बादमें पुस्तक-रूपमें भी प्रकाशित हुआ। इसके बजाय क्या यह ज्यादा अच्छा न होता कि प्रारम्भमें ही इसे पुस्तक-रूपमें छपवाकर ग्राहकोंको भेंटके तौरपर अथवा लागत मल्यपर दे दिया जाता? एक तो 'नवजीवन' का कागज बहुत हलके किस्मका होता है। फिर परिशिष्टांकमें कुछ दूसरी बातें भी रहती ही हैं। इसलिए इतिहासवाला हिस्सा अलग नहीं रखा जा सकता। इसका लाभ केवल 'नवजीवन' के पाठकों को ही मिल सकता है। अगर इन अंकोंको ज्यादा लोग पढ़ें तो पन्ने मसल जायेंगे और अंक फाइल करनेकी स्थितिमें नहीं रह जायेंगे। इसके बदले अगर पुस्तक दी गई होती तो बहुत-से लोग पढ़ पाते। 'नवजीवन' तो कुछ ही लोग पढ़ते हैं, लेकिन पुस्तक पढ़नकी इच्छा बहुत लोगोंको रहती है। और पुस्तकके पन्ने मसले भी नहीं जाते। चाहे जब उसे पढ़ा जा सकता है। वह जितना ज्यादा पढ़ी जायगी, उतने ही ज्यादा लोगोंको उसकी जानकारी होगी। इन तथ्योंके बावजूद, आपके नियन्त्रणमें चलनेवाली संस्थामें मितव्ययिता और दीर्घदृष्टिका इतना अभाव क्यों है? मुझ-जैसे बिलकुल साधारण स्थितिके आदमीके लिए इस तरह दोहरा खर्च कितना कठिन पड़ेगा? क्या इससे कम पैसे में अच्छा साहित्य देने के आदर्शका पालन हुआ है?

दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास अभी पूरा नहीं लिखा गया है। जेलमें[२] मैं कुछ-एक प्रकरण ही लिख पाया था। समय निकालकर 'नवजीवन' के पाठकोंके लिए हर हफ्ते एक प्रकरण लिखता हूँ। अगर प्रारम्भसे ही इसे पुस्तकके रूपमें प्रकाशित करनेका विचार करता तो आजतक भी जनताके सामने इसका कोई हिस्सा प्रस्तुत न हो पाता। इसके अलावा उसकी कीमत भी ज्यादा पड़ती। 'नवजीवन' के सर्वथा गरीब पाठक इसे वाचनालयोंमें पढ़ते है। कुछ लोग सम्मिलित रूपसे मँगाते है।

  1. अप्रैल १९२४ से; गुजरातीमें पुस्तक रूपमें इसका प्रकाशन १९२४–२५ में हुआ था।
  2. थरवदा जेलमें जहाँ गांधीजीको मार्च १९२२ फरवरी १९२४ तक रखा गया था।