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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दरअसल तो प्रकाशन मन्दिर अपने अस्तित्वके लिए 'नवजीवन' का ही आभारी है। इसलिए आप यह बात तो स्वीकार करेंगे न कि वह अप्रत्यक्ष रूपसे 'नवजीवन' के ग्राहकोंका ही आभारी है? फिर भी, मन्दिरको पुस्तकें उसके ग्राहकोंको तो कम कीमतपर दी जायें और 'नवजीवन' के ग्राहकोंको उनके लिए ज्यादा देना पड़े, यह पक्षपात क्यों? हमें भी जो पुस्तकें चाहिए वे कम कीमतपर क्यों नहीं दी जातीं? जो लोग लगातार छः-छः वर्षों से 'नवजीवन' के ग्राहक हैं, उन्होंने क्या गुनाह किया है?

सस्ते प्रकाशनकी योजना मैने नहीं बनाई। यह योजना मुद्रणालयके संचालककी[१] बनाई हुई है। फिर भी यह सच है कि यह योजना मेरी सम्मतिसे चल रही है। ऐसी प्रकाशन-प्रवृत्ति मुझे अच्छी भी लगती है। मुद्रणालयका साप्ताहिकोंसे सम्बन्धित काम जब कम हो गया तो इस खयालसे कि बाकी समयमें थोड़ा-बहुत काम रहे, यह योजना बनाई गई। इसमें मुद्रणालयको बाजार भावसे पारिश्रमिक मिलता है और बदले में वह विना किसी अतिरिक्त पारिश्रमिकके इसकी सारी व्यवस्थाका भार वहन करता है। इस भारको 'नवजीवन' के ग्राहक नहीं उठाते। इस हालतमें सस्ती कीमतका लाभ उसीके ग्राहकोंको मिले, यह उचित ही है। 'नवजीवन' के छः वर्षोंके ग्राहकोंको साप्ताहिक पाठ्य सामग्रीके रूपमें जो-कुछ मिला है, वह कोई सामान्य लाभ नहीं है।

लायलपुरके वकीलके मुवक्किलकी तरह[२] अपने ठगे जानेका किस्सा आपको सुनाऊँ? नडियाद स्वदेशी भण्डार लिमिटेडको उत्तेजन देने के लिए 'नवजीवन' में जो अपील निकाली गई थी, उसीके कारण मैं ठगा गया। आपके पुत्रको कोई आपके जैसा मानकर ठगा जाय, यह तो भल है, लेकिन आपके ही पत्रम प्रकाशित बातको अविश्वसनीय कैसे माना जाये? मैंने दस-दस रुपयके पाँच हिस्से खरोदे। मुझ-जैसे गरीब आदमीने इस भरोसेसे कि स्वदेशीको भी उत्तेजन मिलेगा और साथ ही मुझे भी कुछ ब्याज मिल जायेगा, उसमें अपनी आधी पूंजी लगा दी। लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ? ब्याज तो दूर रहा; कम्पनी दिवालिया घोषित हो गई और तीन वर्ष हो गये मुझे अबतक एक पैसा भी वापस नहीं मिला है। मास्टर कम्पनी तथा भण्डारसे तीन-तीन बार पूछताछ की, लेकिन किसीने जवाब ही नहीं दिया कि भण्डार दिवालिया कैसे हो गया। इस सम्बन्धमें गोकुलदास तलाटीके पास भी निवेदन लिख भेजा, लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया। इस तरह भण्डारके लिक्वीडेटर (परिसमापक) का भी जवाब न देना और श्री तलाटी-जैसे व्यक्तिका जांच-पड़ताल करके कोई उत्तर न देना—इसे क्या आप उचित मानते हैं? क्या आप उनसे कुछ नहीं कह सकते? हममें इतनी व्यवस्था और ईमानदारी भी न हो तो काम कैसे चल

 
  1. स्वामी आनन्दान्द।
  2. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ २७०–७३।