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अन्त्यजोंके मन्दिर
सकता है? जिस तरह 'नवजीवन' में अपील प्रकाशित की गई थी, उसी तरह किसके दोषके कारण इसका दिवाला निकला, कहीं अव्यवस्था तो नहीं हुई, संचालक और दूसरे लोग इससे कहीं अपनी ही थैलियाँ तो नहीं भरते रहे, इन तमाम बातोंकी जाँच करके इस पत्रमें क्या उसका यथोचित स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता?

नडियादके स्वदेशी भण्डारको स्थितिकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। अगर यह भण्डार डूब गया हो, उसमें अनीति हुई हो और मैंने उसे कोई प्रमाणपत्र दिया हो तो में भी अवश्य ही पापका भागी हूँ। यह मेरी अल्पज्ञताका सूचक है। मुझसे भूल हो सकती है, यह तो मैं कई बार कबूल कर चुका हूँ। यदि कुल मिलाकर मेरी भूलों की तुलनामें, जहाँ मैं सही साबित हुआ होऊँ, ऐसे प्रसंगोंकी संख्या अधिक हो तो मेरी बातोंको उस हदतक वजन देने लायक माना जाये। अच्छा तो यह है कि किसीके प्रमाणपत्रको मानकर चलने के बजाय अपने निजी अनुभवसे चीजोंको परखा जाये। लेकिन, यह हमेशा सम्भव नहीं, इसलिए दुनिया प्रमाणपत्रोंको देखकर निर्णय करती ही रहेगी और इसमें वह यदा-कदा धोखा भी खायेगी ही। नडियादके भण्डारमें कोई धोखे-बाजी हुई है यह मुझे मालूम नहीं, मैं संचालकोंको स्पष्टीकरण देनेकी प्रार्थना करता हूँ। मैंने कैसा प्रमाणपत्र दिया था, मुझे यह भी याद नहीं है। यात्रामें मैं फाइलोंको साथ नहीं रखता।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २३–८–१९२५
 

५८. अन्त्यजोंके मन्दिर

अन्त्यजोंके मन्दिरोंके विषयमें मैं अपने विचार पहले ही प्रकट कर चुका हूँ। मन्दिर-मात्रके विषयमें मेरा विचार यही है कि उनका असली मूल्य उनके लिए की गई तपश्चर्याम निहित है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यभिचारी और अत्याचारी पुरुष अपने अत्याचारके पोषणके लिए अथवा उसे छिपानेके लिए जगह-जगह मन्दिरोंकी स्थापना करता है तो वे मन्दिर अपने नाम अथवा रूपसे ही पवित्र स्थान नहीं बन जाते। इसके विपरीत, यदि दस-बीस पवित्रात्मा व्यक्ति अपनी मेहनतसे मिट्टी और घास-फूसकी एक कुटिया बनाकर उसमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके निरन्तर ध्यान करें तो वह व्यभिचारियोंके उस रत्नजटित नाम-मात्रके मन्दिरको तुलनामें तीर्थस्थान है। इसी दृष्टिसे में यह मानता हूँ कि अन्त्यजोंके मन्दिर तभी शोभा देंगे, जब ये मन्दिर मुख्य रूपसे अन्त्यज भाइयोंकी ही मेहनतके परिणाम हों। ऐसी सलाह मैंने लाठीके[१] अन्त्यज भाई-बहनोंको दी थी और उन्होंने उसे स्वीकार भी कर लिया था। उन्होंने उसी सभामें उसके लिए पैसे और आभूषण दिये थे। मेरे द्वारा रखी गई शर्ते ये थीं : तय हुआ था कि

 
  1. सौराष्ट्रका एक छोटासा कस्बा, जो उस समय एक रियासत की राजधानी था; देखिए खण्ड २६, पृष्ठ ४६९।