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कुछ और प्रश्न
पहले मदिरापान करते हों और बादमें पति मदिरा छोड़ दे और पत्नीसे भी छोड़ने के लिए कहे, लेकिन वह न छोड़े तो क्या पति उसे लाकर पिलाया करे? आपने कई बार विदेशी वस्त्रोंकी तुलना शराबके साथ की है और उन्हें जला डालनेका आग्रह किया है। फिर अब आप यह उपदेश कैसे देने लगे? क्या यह उलटी बात नहीं है? पति बहुत हुआ तो देशी मिलके कपड़े खरीद दे, पर विदेशी तो हरगिज नहीं।

पति-पत्नीका धर्म विकट है। हिन्दू पति यही समझते हुए दिखाई देते है कि पत्नी एक सौदेकी चीज है। मैंने ऐसे राक्षस-रूप पतियोंके बारेमें भी सुना है जो अपनी अर्धागिनीके सम्बन्धमें कहते हैं—'यह मेरा माल है'। जो यह कहते हों कि पति जितने परिवर्तन अपने जीवनमें करे उनको पत्नी तुरन्त समझ ले और वह भी उनपर अमल करने लगे, उन्हें क्या कहें?

पत्नीका कोई व्यक्तित्व है या नहीं?

दमयन्तीका था। मीराबाईने तो अपने आचरणसे ही इसे प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया। दम्पती-धर्म बहुत कठिन है। दलित स्त्रीकी सन्तान भी दलित ही होगी। जिस प्रकार खादीके भक्तको औरोंका विदेशी लिबास सहन करना पड़ता है, उसी प्रकार वह अपनी पत्नीका भी करे। फर्ज कीजिए कि हम दम्पती मांसाहारी है। मुझे शुद्धिकी प्रेरणा हुई और मैंने मांसाहार छोड़ दिया; तो क्या मेरी पत्नीको भी मांसाहार छोड़ देना ही चाहिए? या मैं उसे समझाकर, मना कर छुड़वाऊँ? फर्ज कीजिए कि मैंने जबरन पत्नीसे मांसाहार छुड़वा दिया; पर फिर मेरी जीभने मांसाहार माँगा तो क्या फिर मेरी पत्नीको भी शुरू करना चाहिए? ऐसे सुहागसे वैधव्य क्या बुरा है? राक्षसकी स्त्री मन्दोदरीको भी स्वतन्त्रता थी। द्रौपदी पाण्डवोंको धौंस देती थी, भीम जैसा पति द्रौपदीके पास नम्र बनकर जाता था। सीता-पतिकी तो बात ही क्या? सीता थी कि राम पूजे गये। धर्ममें बल-प्रयोग नहीं हो सकता। धर्म तो तलवारकी धार है। जहाँ कृष्णने "किं कर्म"[१] कहा है, वहाँ "कि धर्म" समझना चाहिए। कवि अर्थात् ज्ञानीका मन भी उसका शोध करते हुए भ्रमित हो गया है। मैं खादीका परम भक्त है, लेकिन मैं भी मानता है कि अपनी पत्नीको जबरन खादी पहनानेका अधिकार मुझे नहीं है। पति-पत्नीका प्रेम स्थूल वस्तु नहीं। उसके द्वारा आत्मा-परमात्माके प्रेमकी झांकी दिखाई दे सकती है। यह प्रेम वैषयिक प्रेम कभी नहीं हो सकता। विषय-सेवन तो पशु भी करता है, उसे हम पशु-चर्याके नामसे जानते है। जहाँ शुद्ध प्रेम है, वहाँ बल-प्रयोगके लिए गुंजाइश ही नहीं। जहाँ शुद्धप्रेम है, वहाँ दोनों एक-दूसरेका मन रखकर चलते हैं और दोनों धर्म मार्गमें आगे बढ़ते हैं।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २३–८–१९२५
 
  1. किंकर्म किंकर्मति कवोऽप्यत्र मोहिताः।
    तते कर्म प्रवक्ष्यामि षज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ ४–१३