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स्वराज्य या मृत्यु

में आकर या उसकी शक्तिके सामने घुटने टेककर हाथ-कताई या खादी छोड़ नहीं देते। अगर हिन्दू और मुसलमान एक दूसरेके भाई बनकर रहते तो ब्रिटेनके सामन्तगण उनके बीच फूट नहीं डाल सकते थे। और अस्पृश्यताके अस्तित्वके लिए सरकारको दोष देना तो उसकी झूठी बदनामी करना है। अगर सरकारको कट्टरपन्थियोंके विद्रोहका भय न होता तो वह इस प्रथाको शायद कबकी समाप्त कर चुकी होती। जहाँतक मैं जानता हूँ वह एक भी अवसरपर इस सुधारके आड़े नहीं आई है। पत्र-लेखकने जो वाइकोमके मामलेका दोष सरकारके मत्थे मढ़ा है, वह गलत है। इसका कारण तो सिर्फ वहाँके देशी शासनकी भीरुता है। मैं वर्तमान शासन प्रणालीका प्रशंसक नहीं हूँ। लेकिन, अगर मैं अपनी इस उम्र में अपनी विवेकशक्तिको खो दूँ तो फिर मैं इस प्रणालीका अन्त नहीं ही कर पाऊँगा। शैतानके साथ भी न्याय करो, यह कहावत सही और ध्यान रखने योग्य है।

लेकिन, मुझे यह आशंका पूरी है कि जब खदरमें इतनी शक्ति आ जायगी कि वह इस देशसे विदेशी वस्त्रोंको निकाल बाहर कर सके तो सरकार शायद उसके नाशका प्रयत्न करेगी। मैं ऐसा माननेको तैयार नहीं हैं कि यह विद्रोहियोंकी पोशाक है या इसे उनकी पोशाक होने की कोई जरूरत है। सत्य यह है कि सरकारी हल्कोंमें खादीके खिलाफ छिपे तौरपर प्रचार चल रहा है। मुझे बताया गया है कि खादी पहननेवालेपर निगाह रखी जाती है। खादी न पहननेपर सरकारी हल्कोंमें उसे जो बहुत-सी सुविधाएँ मिल सकती थीं, वे खादी पहनने के कारण नहीं मिलतीं। लेकिन, आम लोगोंको खादी अपनानेसे रोकनेवाली कोई चीज नहीं है। स्वराज्य कुछ आसमानसे तो नहीं टपक पड़ेगा। इसके लिए धैर्य, कठिनाइयोंको झेलते हुए अडिग रहने, अथक रिश्रम और साहस तथा परिस्थितियों और परिवेशकी सही पहचान तथा पकड़की आवश्यकता होगी। पत्र-लेखकने जिस "दैवी शक्ति" की बात कही है, उसका लाभ भी मन अथवा शरीरसे शिथिल होकर पड़े रहने से नहीं, प्रार्थनापूर्ण श्रमसे ही मिल सकता है। श्रमहीन प्रार्थना कर्महीन आस्थाके समान एक निस्सार वस्तु है। इसलिए, हम भले ही विदेशी वस्त्रोंका पूरा बहिष्कार न कर पायें, किन्तु स्वराज्य पाने के लिए स्वराज्य प्राप्तिके पहले हमें खादीका कमसे-कम एक 'सुशोभन प्रदर्शन' तो कर सकना चाहिए। उदाहरणके लिए, कांग्रेसियोंको सभी अवसरोंपर खादी पहनने या चरखा चलानेसे कौन रोकता है? या उनसे स्वराज्य-प्राप्तिके बाद ही खादी पहनने या चरखा चलानेकी अपेक्षा की जानी चाहिए? क्या हम सब इस बातकी प्रतीक्षामें बैठे हुए फरिश्ते हैं स्वराज्य हो जानेके बाद राष्ट्रीय सरकार आकर हमारे पंखोंमें जान फूंक देगी और हम उड़ चलेंगे? भले ही स्वराज्यसे पूर्व हमारे बीच आदर्श साम्प्रदायिक एकता स्थापित न हो पाये, लेकिन किसी तरहकी काम चलाऊ एकताका रास्ता कौन रोक रहा है? इसके विपरीत, क्या तथ्य यह नहीं है कि हममें एक दसरेके प्रति इतना अविश्वास है कि वास्तवमें हम स्वराज्यकी कामना ही नहीं करते?

पत्र-लेखककी भूल सरकारके कर्तव्योंके सम्बन्धमें उनकी भ्रामक धारणामें निहित है। स्पष्ट ही उनका खयाल यह है कि आदर्श सरकार वही है जो हमारे लिये हर चीजकी व्यवस्था कर दे, जिससे हमें खुद कुछ सोचना भी नहीं पड़े। किन्तु, सच्चाई