पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

६८. सर्वसामान्य लिपि

यदि हमें दुनियाके सामने अपने इस दावेको सिद्ध करके दिखाना है कि हम एकराष्ट्र है तो हमारी बहुत-सी चीजें समान होनी चाहिए। हमारे यहाँ विविध धर्म और सम्प्रदाय है, किन्तु सबके भीतर एक ही संस्कृतिकी धारा प्रवाहित होती है। हमें जो बाधायें सहनी पड़ती है वे भी समान हैं। मैं आजकल यह दिखाने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशाकके लिए एक-सा कपड़ा वांछनीय ही नहीं, आवश्यक भी है। हमें एक सर्वसामान्य भाषाकी भी जरूरत है—दूसरी देशी भाषाओंको हटाकर नहीं, बल्कि लोग उनके साथ-साथ आम तौरपर इस बातको स्वीकार करते हैं कि वह भाषा हिन्दुस्तानी होनी चाहिए, अर्थात् वह हिन्दी और उर्दूके सम्मिश्रणसे बनी होनी चाहिए जो न संस्कृतनिष्ठ हो और न जिसमें फारसी या अरबीके शब्दोंकी भरमार हो। इसके मार्गमें सबसे बड़ी बाधा हमारी देशी भाषाओंकी अलग-अलग लिपियाँ हैं। अगर हम एक सर्वसामान्य लिपि अपना सकें तो हमारी एक सामान्य भाषा होनेका जो ध्येय एक सपना-सा बना हुआ है उसे साकार करनेके मार्गकी एक बहुत बड़ी कठिनाई दूर हो जाये।

लिपियोंकी अनकता कई बातोंमें बाधक है। यह ज्ञानार्जनके मार्गमें एक बहुत बड़ी दीवार है। सभी आर्य भाषाओंमें इतनी अधिक समानता है कि अगर अलग-अलग लिपियोंपर अधिकार पाने में बहुत सारा ससय खर्च न करना पड़े तो हम आसानीसे कई भाषाएँ सीख लें; उदाहरणके लिए, अगर रवीन्द्रनाथ ठाकूरका अद्वितीय साहित्य देव नागरी लिपिमें छाप दिया जाये तो जिन लोगोंको संस्कृतका थोड़ा-सा ज्ञान है, उनमें से अधिकांशको उस साहित्यको समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। लेकिन बंगला लिपि तो मानो यह चेतावनी देती जान पड़ती है कि "मुझसे दूर रहो।" दूसरी ओर, अगर बंगाली लोग देवनागरी लिपि जान ले तो तुलसी-साहित्यके अद्भुत सौष्ठव तथा उसकी आध्यात्मिकताका और हिन्दुस्तानीके अन्य बहुत-से साहित्यकारोंकी कृतियोंका रसास्वादन वे बड़ी आसानीसे कर सकते हैं। जब मैं १९१५ में[१] लौटकर भारत आया तो एक संस्थासे मुझे एक पत्र प्राप्त हुआ था। इस संस्थाका मुख्य कार्यालय, मेरा खयाल है कलकत्तामें था और उसका उद्देश्य सारे भारतके लिए एक सर्वसामान्य लिपिकी हिमायत करना था। उस संस्थाके क्रिया-कलापका तो मुझे कोई ज्ञान नहीं है, लेकिन इसका उद्देश्य सराहनीय है। थोड़े-से लगनशील कार्यकर्ता भी इस दिशामें काफी ठोस काम कर सकते है। इसकी कुछ स्पष्ट मर्यादाएँ हैं। समस्त भारतके लिए एक लिपि हो, यह एक ऐसा आदर्श है जिसे चरितार्थ करना बहत दूरकी बात है। लेकिन, अगर हम सिर्फ अपनी प्रान्तीय भावनाका त्याग कर दें तो जो लोग संस्कृतसे निकली भारतीय भाषाएँ बोलते हैं, और जिनमें इस तरहके दक्षिण भारतवासी लोग भी शामिल हैं, उन

  1. साधन-सूत्रमें यहाँ १९०५ है, जो स्पष्ट ही छपाई की भूल है।