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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अगर उस जातिके मुखियोंसे पूछा जाता तो ज्यादा सम्भावना इस बातकी थी, और यह स्वाभाविक भी था, कि वे कहते, हमारी बोली उतनी ही अच्छी है, जितनी कि उड़िया या बिहारी और उसके लिए बस लिपि तय कर दी जाये। आधुनिक कालमें मुझे कमसे-कम ऐसे दो उदाहरणोंकी जानकारी तो है, जब नई लिपियाँ अपनाई गई है। किन्तु, अगर इस कबीलेकी बोलीके लिए कोई नई लिपि नहीं अपनाई जा सकती थी तो कबीलेके लोगोंके लिए देवनागरी और उड़िया में चुनाव करना मुश्किल था—उनके लिए दोनों लिपियाँ बराबर थीं। अतः, समस्त भारतकी दृष्टिसे सोचनेकी कोशिश करते हुए मैंने उन भाइयोंसे कहा कि उड़िया भाषाको समृद्ध और विकसित करना तो आपके लिए उचित ही है, लेकिन इस जातिके बच्चोंको हिन्दी ही पढ़ाई जाये और स्वभावतः उसकी लिपि देवनागरी ही होनी चाहिए। ऐसी वर्जनशील और संकुचित वृत्ति, जिसमें हर तरहकी बोलीको स्थायी बनाये रखने और विकसित करनेका आग्रह हो, राष्ट्र-विरोधी है और विश्व-विरोधी भी है। मेरी तुच्छ सम्मतिमें, हमें सभी अविकसित और लिपि-हीन बोलियोंका मोह त्याग देना चाहिए और उन्हें हिन्दुस्तानीके बृहत् प्रवाहमें मिला देना चाहिए। इस त्यागका मतलब आत्महत्या नहीं होगा, बल्कि इससे हम और भी परिष्कृत बनेंगे। अगर हम चाहते हैं कि शिक्षित-सुसंस्कृत भारतीयोंकी कोई एक सर्वसामान्य भाषा हो, तो विभिन्न देशी भाषाओं और लिपियोंके परस्पर एक-दूसरेसे अलग होते जानेकी और उनकी संख्या में वृद्धिकी प्रक्रियाको हमें रोकना होगा। हमें एक सर्वसामान्य भाषाको प्रोत्साहन देना होगा। इसकी शुरुआत स्वभावतः लिपिसे करनी चाहिए, और जबतक हिन्दू-मुस्लिम एकताका सवाल हल नहीं हो जाता तबतक इस प्रवृत्तिको भारतके हिन्दुओंतक ही सीमित रखना चाहिए। अगर मेरी चले तो मैं सभी प्रान्तोंमें प्रान्तीय लिपिके अलावा देवनागरी और उर्दू लिपि सीखना अनिवार्य कर दूँ और देशी भाषाओंको सभी प्रमुख कृतियोंको, हिन्दुस्तानीमें शाब्दिक अनुवादके साथ-साथ, देवनागरी लिपिमें छाप दूँ। दुःखकी बात है कि बहुत कम कांग्रेसियोंने देवनागरी लिपि सीखनेकी परवाहकी है और उर्दू लिपि सीखनेकी तो और भी कम लोगोंने।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७–८–१९२५