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६९. हुकवर्म और चरखा

श्री एन्ड्रयूजने एक पत्रके साथ पशुओंके विषयमें एक अखबारकी कतरन भेजी थी। उस विषयपर इसी अंकमें अन्यत्र विचार किया गया है।[१] पत्रमें उन्होंने निम्न बातें भी लिखी हैं :

अभी कुछ ही दिन हुए रॉकफेलर स्वास्थ्य मण्डलके डॉ॰ टेंडरिक मेरे साथ थे। वे मद्रासका दौरा कर रहे हैं। उन्होंने मुझे बताया कि जाँच करनेपर उन्हें पता चला कि किसानोंमें से ९२ से ९५ प्रतिशततक लोग हुकवर्म (अंकुश-कृमि) और मैलेसे उत्पन्न होनेवाले टाइफाइड तथा पेचिश-जैसे अन्य संक्रामक रोगोंके शिकार हैं। ये रोग यहाँ बहुत फैले हुए हैं। इसका कारण यह है कि पौने आदिके काममें लाये जानेवाले पानीमें सर्वत्र मल-मूत्र मिल जाता है। उनका कहना है कि इन लोगोंको अवस्था वैसी ही है जैसी बीस साल पहले अमेरिकाके दक्षिणी राज्यों में हशियोंकी थी। परिणाम भी वही हुआ है। लोगोंमें शक्ति नहीं है, वे कमजोरीके कारण कष्टमय जीवन बिता रहे हैं। मैलेको ठिकाने लगाने को उचित व्यवस्था करके हुकवर्म, टाइफाइड आदि रोगोंपर काबू पा लिये जानेपर आज उक्त अमेरिकी राज्योंमें लोग समृद्ध और सशक्त हैं। उन्होंने गाँवों में नालियाँ बनाने की बात कही। तरीका यह है कि नाली खोदकर छः महीनेतक उसका उपयोग किया जाये और उसके बाद उसे भर दिया जाये। फिर छः महीने बाद उसे खोदनेपर उससे निर्दोष और अच्छी खाद मिल जाती है। उनका कहना है कि चीन, जापान और दूसरे देशोंमें भी अधिकांशतः इसी पद्धतिसे काम लिया जाता है। इसलिए उनके विचारसे अगर यहाँके लोग इस पद्धतिको अपना लें और अपनी मौजूदा आदत छोड़ दें तो यह आथिक दृष्टिसे इतना लाभदायक सिद्ध होगा जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। मैं जो बात कहना चाहता हूँ वह यह है कि चरखेने हमें ग्रामोद्धारकी समस्याके स्वरूपका दिग्दर्शन तो करा दिया है, लेकिन वह उसे हल नहीं कर पाया है। यदि आप यह कहें कि केवल सारा जोर चरखेपर ही देनसे, सिर्फ इसीके जरिये वह समस्या हल हो जायेगी तो यह दृष्टिकोग बहुत संकुचित है। पशुओंकी समस्या और सफाईकी समस्या भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं।

इस अनुच्छेदमें श्री एन्ड्रयूजने सफाईका सवाल उठाया है। ऐसा नहीं है कि मैं सफाईकी जरूरत नहीं समझता। जब मुझे चरखेकी बात सूझी उससे बहुत पहले ही

  1. देखिए "टिप्पणियाँ", २७–८–१९२५ का उपशीर्षक "पशुओंकी समस्या"।

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