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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं सफाईकी स्थिति सुधारनेकी ओर प्रवृत्त हो चुका था। मैने स्वयं नेटालमें फीनिक्सके फार्ममें मैलेको गाड़ने और उसकी बढ़िया खाद बनाने के प्रयोग किये थे। हम कोई भंगी नहीं रखते थे; और स्वयं भंगीका काम करते थे, और जैसा कि स्वयं श्री एन्ड्रयूज जानते है कि फीनिक्स आश्रम में कोई भी नंगे पैर चल सकता था और उसको अपने पैरोंके गंदगीपर पड़नेका कोई खतरा नहीं होता था। साबरमती के किनारे सत्याग्रह आश्रममें भी मैलेकी ऐसी ही व्यवस्था की जाती है। किन्तु इसके सम्बन्धम में कोई प्रचार नहीं करता; जिसका कारण सिर्फ यह है कि इससे हमारी दिनपर-दिन बढ़ती हुई गरीबीकी समस्याका कोई तात्कालिक और सीधा हल नहीं निकल सकता। इसके अतिरिक्त गंदगीको समस्यासे निबटने के लिए पुराने पूर्वग्रहों और पुरानी आदतोसे जूझनेकी जरूरत है। इसके लिए तो लोगोंको लगातार सफाईके नियम सिखाते रहना पड़ेगा; और फिर इसमें सरकारकी सहायता लिये बिना भी काम नहीं चल सकता। मैं दुःखके साथ स्वीकार करता हूँ कि लोगोंकी पीढ़ी-दरपीढ़ीसे चली आ रही आदतें समझाने-बुझानेसे नहीं छूटतीं। मुझे तो इसका एकमात्र कारगर उपाय सरकार द्वारा कानून बनाना ही दिखाई देता है।

किन्तु ऐसी आपत्ति चरखेके सम्बन्धमें लागू नहीं होती। इसके विपरीत चरखा हर सुधारका मार्ग प्रशस्त करेगा, और यदि में राष्ट्रका ध्यान चरखेपर केन्द्रित कर सँकू तो उससे दूसरी सब समस्याएँ अपने-आप हल हो जायेंगी; और जिन बातोंके बारेमें कानून बनाने की जरूरत होगी वहाँ कानून बनानेका रास्ता भी साफ हो जायेगा। चरखेके पीछे व्यक्तिको तत्काल लाभ पहुँचानेका विचार है, भले ही वह लाभ बहुत छोटा हो। इसे चलाने में कोई कठिनाई नहीं होती। उसके विरुद्ध कोई बद्धमूल पूर्वग्रह नहीं है। कमसे-कम सीधे-सादे आम लोगोंको इसके लिए बहुत ज्यादा समझानेबुझाने की जरूरत नहीं है। इसमें कमसे-कम पूंजीकी जरूरत होती है। एकमात्र यही रचनात्मक काम है जिसे राष्ट्रीय पैमानेपर किया जा सकता है। यदि यह सफल हो जाये तो इसके राजनैतिक परिणाम बड़े जबरदस्त निकल सकते है। और यह देखते हुए कि सहयोगके बिना यह सफल नहीं हो सकता, यह बहुत जबरदस्त सहकारी प्रयत्नकी सम्भावना प्रस्तुत करता है। मेरा यह दावा है कि केवल चरखेपर ही सारा ध्यान देनसे स्वराज्य मिल जायेगा और यदि ऐसा लगता हो कि यह कहना एक बहुत बड़ी बात कहना है तो फिर दूसरे शब्दोंमें यों कहिए : चरखे और जो दूसरी चीजें इसमें निहित हैं उनके बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता, और कोई भी समझदार अर्थशास्त्री केवल चरखेपर ही अपना ध्यान केन्द्रित इसलिए करेगा क्योंकि वह जानता है कि बाकी बातें तो उसके बाद अपने आप हो जायेंगी।

अब तनिक गहराईमें जाकर इस रोगका निदान करूँ। राष्ट्रको सम्पतिका विदेश जाना उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी बड़ी बात गरीबी है, और गरीबी भी उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी बड़ी बात काहिली है—काहिली, जो पहले ऊपरसे थोपी गई थी। राष्ट्रकी सम्पत्तिका विदेश जाना रोका जा सकता है और गरीबी तो बीमारीका केवल एक लक्षण-मात्र है; किन्तु काहिली उसका सबसे बड़ा कारण है, वह समस्त