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भाषण : छात्रोंकी सभामें


अब सवाल यह है कि विद्यार्थियोंमें संगठनकी भावना कैसे आये? अर्थात अगर स्पष्ट शब्दों में कहें तो उनका अपना उद्देश्य क्या हो, राष्ट्रकी दृष्टिसे भारतके सम्बन्धमें उनकी सर्वसामान्य इच्छा क्या हो? स्वभावतः इसका पहला उत्तर यही है कि विद्याथियोंको अपने अध्ययन में भी राष्ट्रीय भावना लानी चाहिए। विद्यार्थी-जीवनमें उन्हें सिर्फ अपनी ही चिन्ता नहीं करनी चाहिए, सिर्फ इसी बातकी फिक्र नहीं करनी चाहिए कि कालेजोंसे निकलनेके बाद वे क्या करेंगे, बल्कि यह भी सीखना चाहिए कि वे जो ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, उसका उपयोग कैसे करेंगे। उन्हें यह देखना चाहिए कि परिवारके प्रति उनका दायित्व और राष्ट्र के प्रति उनका जो दायित्व है, उनमें परस्पर कोई असंगति न हो। श्रोताओंको सन् १९०८ की बातका स्मरण दिलाते हुए महात्माजीने कहा कि मैंने तभी यह देख लिया था कि एक चीज ऐसी है जो समान रूपसे सबपर लाग होती है और वह है चरखा। अपने देशकी इस अधोगतिका रहस्य तभी मेरी समझमें आ गया था और अब मेरी यह चुनौती है कि कोई भी व्यक्ति मेरी इस खोजको कि यह देश आलस्य और निठल्लेपनके रोगसे दम तोड़ रहा है गलत साबित करके दिखाये। अगर हम आलस्य और निठल्लेपनको त्याग दें तो गरीबी, भूख, भारतके धनका बहकर विदेशों में जाना, इन सब चीजोंसे हमें पल-भरमें मुक्ति मिल सकती है। अगर आप गाँवों में जायें तो प्रत्यक्ष देखेंगे कि भारतके इस कष्टकर दारिद्रयका मूल कारण आलस्य ही है। बल्कि मैं तो यहाँतक कहूँगा कि आलस्य हो हमारी परतन्त्रताका कारण है। कारण, मेरा यह निश्चित विश्वास है कि जो राष्ट्र आलसी लोगोंका राष्ट्र नहीं है, जो राष्ट्र अपने सारे समयका उपयोग अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए करता है, वह दुनिया-भरको ताकतके मुकाबले भी डटकर खड़ा रह सकता है। हर ग्रामवासीको अपने अवकाशके एक-एक क्षणका उपयोग अपनी मातृभूमि के लिए करना अपना कर्त्तव्य मानना चाहिए।

तब वैसा कौन-सा काम है जिसे हममें से हरएक अपना निजी काम करते हुए करता रह सकता है? सीधा-सा उत्तर है—चरखा। इसलिए विद्यार्थियोंको गाँवोंमें जाकर लोगोंको चरखेकी शक्ति समझानी चाहिए। इसके लिए आप लोगोंको आलस्य और निठल्लापन त्यागकर गांवों में जाना पड़ेगा—लेकिन उपकारककी तरह नहीं, सेवकके रूपमें।

स्वदेशीके विषयमें बोलते हुए महात्माजीने कहा कि स्वदेशीके पीछे एक प्रकारकी 'कंजरवेटिव स्पिरिट' है। इस शब्दका एक और प्रचलित अर्थ भी होता है—पुराणपरायणता जो परिवर्तन-मात्र के खिलाफ खड़ी हो। लेकिन मैं यहाँ उसका प्रयोग उसके मूल अर्थमें, रक्षाकी वृत्तिमें कर रहा हूँ। स्वदेशीकी भावना आपको, हमारे पास जोकुछ उत्तम है, उसकी रक्षा करने में समर्थ बनायेगी, उसे बचाकर रखना सिखायेगी। बहुत-सी चीजोंका त्याग करने की भी जरूरत होती है, लेकिन किसी चीजको केवल प्राचीन होने के कारण आँखें मूंदकर वन्दना नहीं करनी चाहिए उसी प्रकार आँखें