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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सवालोंका सच्चा हल लोकशिक्षामें है। लोकशिक्षाका अर्थ अक्षरज्ञान नहीं, उसका अर्थ है लोगोंका अपनी मूर्छाकी अवस्थासे जाग उठना और अपनी स्थिति और शक्तिको पहचानना। यह वास्तविक कार्यके द्वारा ही हो सकता है, बातोंसे नहीं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हर तरहका बाहरी आन्दोलन निरर्थक है। मैं 'यंग इंडिया' में कह चुका है कि उसके लिए भी स्थान है। वैसा आन्दोलन पत्रकार अवश्य करें। उसका असर उतना अवश्य होगा, जितना कि उसमें सत्य और मर्यादा होगी। पर उसे प्रधानपद नहीं दिया जा सकता। वह गौण है और उसका दारोमदार सिर्फ आन्तरिक अर्थात् रचनात्मक कार्यकी सफलतापर ही है। मुर्देमें सांस फूँकनेसे उसमें जान नहीं आ जाती। जीवित प्राणीकी साँस यदि रुंध गई हो और उसमें प्रयत्न करनेकी शक्ति हो तो साँस फूँकना सहायता देता है। यही बात समाजके साथ भी है। आन्दोलन सहायता-रूप है। यह मूल वस्तु नहीं है। हब्शियोंके कष्टोंकी कथा सारी दुनिया कितनी ही गाती फिरे, पर यदि हब्शियोंमें कुछ जान ही न हो तो सारा आन्दोलन निरर्थक होगा। ऐसी कितनी ही आधुनिक मिसालें हैं। यदि दक्षिण आफ्रिकाके भारतवासियोंमें कुछ भी दम न हो तो यहाँके प्रयत्नोंके बावजूद उनकी स्थिति कमजोर ही रहेगी। काठियावाड़ राजनीतिक परिषद्को अपना कार्यक्षेत्र आप ही तय करना है।

गुजरातसे बाहर रहनेवाले गुजराती

मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, गुजरातसे बाहर रहनेवाले गुजरातियोंसे मुलाकात होती है। और हर जगह मुझे उनकी सहायता मिलती रहती है। भाई मणिलाल कोठारीके कलकता आनेके बादसे तो उन्होंने बंगाल देशबन्धु कोषमें पैसा देनेमें हद ही कर दी है। खड़गपुरके गुजरातियोंने भी अपना चन्दा भेजा है। कटकमें बहुत थोड़ेसे गुजराती हैं। लेकिन उन्होंने अच्छी खासी रकम दी है। लेकिन खड़गपुरमें मुझे एक अनुभव हुआ, जिससे में बहुत दुःखी हुआ। बहुत-से भाई मेरे पास आकर कोषके लिए अपना हिस्सा देते हुए अपने साहबोंसे डरते थे। साहबोंकी ओरसे उन्हें जो ठेके मिलते हैं, वे न मिलें तो? अभी तो ऐसे किसी डरका कारण दिखाई ही नहीं देता। साहब लोग भी मुझसे बड़े प्रेमसे मिलते हैं। फिर ये भाई डरते क्यों थे? डर भीतरकी चीज है। जो डरता है, उसे सब डराते हैं, और जो भय छोड़ देता है उसे डरानेकी किसीकी हिम्मत नहीं होती। निर्भय लोग धन नहीं कमाते, ऐसा भी नहीं है।

हाँ, जिसके मनमें खोट हो, वह जरूर डरता है। जो अनीतिसे कमाते हैं, जो लोग ठेके में गोलमाल करते हैं, उन्हें तो जहाँ डरका कोई कारण नहीं है, वहाँ भी डर लगता है। लेकिन, मुझे आशा है कि ये भाई जो डर रहे थे, उनके पास डरका ऐसा कोई कारण नहीं था। मैं हिन्दुस्तानके किसी भी स्त्री अथवा पुरुषको डरते नहीं देखना चाहता। मैंने तो ऐसा मान लिया था कि जो गुजराती बाहर रहते हैं, उन्होंने तो सामान्य भयको त्याग ही दिया है। अपनी यात्राओंमें मुझे यह देखनेको मिला है कि जहाँ दूसरोंको डर लगा है, वहाँ भी गुजराती निर्भय रहे हैं। खड़ग