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पाश्चात्य देशों का उद्धार कैसे हो?

गये अनुदानसे चलता है। यह संस्था लड़कियोंके लिए है; और एक ईसाई धर्म प्रचारिकाने इसी संस्थाके काममें अपनेको लगा रखा है। यहाँ भी दूसरी चीजोंके साथ-साथ हाथ-कताईकी तालीम दी जाती है, परन्तु जो दोष मैने वहाँ देखे थे, वे यहाँ भी पाये। उस संस्थाकी अधीक्षिका उसे सफल बनाने के लिए बहुत उत्सुक है, परन्तु जबतक वे स्वयं कताई इत्यादि सीख नहीं लेतीं—ताकि वे यह जान सकें कि अमुक चरखा अच्छा है, अमुक खराब है और कताई ठीक ढंगसे हो रही है या नहीं—तबतक वे उसे सफल नहीं बना सकतीं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-९-१९२५
 

७९. पाश्चात्य देशोंका उद्धार कैसे हो?

एक यूरोपीय मित्र लिखते हैं :

पाश्चात्य देशोंके भूखसे तड़पते करोड़ों लोगोंके लिए क्या किया जा सकता है, उनके उद्धारके लिए आप किस उपायको काममें लानेका सुझाव देते हैं? भूखसे तड़पते करोड़ों लोगोंसे मेरा मतलब है, यूरोप और अमेरिकाके सर्वहारा लोगोंका वह विशाल समुदाय जिसे विनाशके गर्तमें ढकेला जा रहा है, जो ऐसे घोर कष्टोंकी जिन्दगी जी रहा है जिसे जिन्दगी कहा ही नहीं जा सकता, जो किसी भी प्रकारके स्वराज्यके द्वारा निकट भविष्यमें अपने कष्टोंसे मुक्ति पानेकी आशा नहीं कर सकता, जो कदाचित् भारतीय जनसमुदायसे भी अधिक हताश है, क्योंकि प्रति आस्था और धर्मसे मिलनेवाली सांत्वनाका सहारा भी उसके हाथोंसे कबका छूट चुका है और अब उसके स्थानमें उसे जो-कुछ मिला है, वह है घृणा।
जो फौलादी हाथ भारतको जनताको कुचल रहे हैं, वे यहाँ भी अपनी करतूत दिखा रहे हैं। यह आसुरी प्रणाली इन तमाम स्वतन्त्र देशों में क्रियाशोल है; लोभ-लालचका इतना जोर है कि राजनीतिका कोई महत्व ही नहीं रह गया है। जनसाधारण दुराचारसे तबाह हो रहा है, और यह स्वाभाविक है, क्योंकि वह अपनी जिन्दगीके इस नरकसे छुटकारा पाना चाहता है—किसी भी कीमतपर, न हो तो इससे भी अधिक नारकीय जीवन भोगनेकी कीमतपर। हारे-थके मनुष्यको धर्मके अंकमें जाकर जो संतोष और आशा मिलती है, उसका मार्ग भी अब उसके लिए अवरुद्ध है, क्योंकि ईसाई-धर्म सदियोंसे शक्तिशाली और लोलुप लोगोंका पक्षपाती बना रहकर अपनी सारी साख खो चुका है।
का यह तो मैं जानता हूँ कि यदि अब भी इस जनसमुदायको मुक्तिका कोई मार्ग शेष रह गया है, यदि समस्त पाश्चात्य संसार अभी विनाशको प्राप्त नहीं हुआ है तो महात्माजी उसकी मुक्तिका यही उपाय बतायेंगे कि