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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
बड़े पैमानेपर अनुशासित और अहिंसामय सत्याग्रह चलाया जाये। किन्तु, यूरोपको मिट्टी और मानसमें अहिंसाको कोई परम्परा नहीं है। इस सिद्धान्तका प्रचार करने में ही न जाने कितनी बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आयेगी, उसको सही अर्थोंमें समझने और उसका प्रयोग करनेकी बात तो दूर रही।

इस भाईने यह प्रश्न बड़े सच्चे मनसे पूछा है, किन्तु इसमें निहित समस्या मेरी परिधिके बाहर है। इसलिए मैं उत्तर देने की जो कोशिश कर रहा हूँ वह मात्र मेरे और प्रश्नकर्ता सज्जनके बीच जो मैत्री-सम्बन्ध है उसीका खयाल करके मैं यह स्वीकार करता हूँ कि यहाँ मेरे उत्तरका उतना ही महत्त्व है जितना कि सोच-समझकर दी गई किसी भी दलीलका हो सकता है। जिस अर्थमें मैं भारतके रोगका निदान और उपचार जानने का दावा करता हूँ उस अर्थमें यूरोपके रोगका निदान और उपचार मुझे मालूम नहीं है। यद्यपि यूरोपमें लोगोंको राजनीतिक स्वशासन प्राप्त है फिर भी, मुझे लगता है कि मूलतः यूरोप भी उसी रोगसे ग्रस्त है, जिससे भारत। भारतमें राजनीतिक सताके हस्तान्तरण-मात्रसे मुझे सन्तोष नहीं होगा, यद्यपि ऐसे हस्तान्तरणको मैं भारतके राष्ट्रीय जीवनके लिए अत्यन्त आवश्यक मानता हूँ। इसमें सन्देह नहीं कि यूरोपके लोगोंको राजनीतिक सत्ता प्राप्त है, किन्तु स्वराज्य नहीं। उनके आंशिक लाभके लिए एशिया और आफ्रिकाकी जनताका शोषण किया जा रहा है, किन्तु उवर वे स्वयं लोकतन्त्रके नामपर शासक वर्ग या शासक जाति द्वारा चूसे जा रहे हैं। इसलिए, मूलतः वे भी उसी रोगसे ग्रस्त जान पड़ते हैं जिसने भारतको जर्जर बना रखा है। अतः ऐसा लगता है कि इसके लिए भी उसी उपचारका प्रयोग किया जा सकता है। यदि तमाम छद्म आवरणोंको हटाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जायेगा कि यूरोपके जनसाधारणका शोषण भी हिंसाके बलपर ही होता है।

अगर जनसाधारण भी हिंसासे काम ले तो इस उपायसे यह रोग कभी दूर नहीं हो सकेगा। जो भी हो, अबतकके अनुभवसे तो यही प्रकट होता है कि हिंसासे प्राप्त सफलता क्षणिक सिद्ध हई है। इसका परिणाम और भी बड़ी हिंसाके रूपमें प्रकट हुआ है। उपायके तौरपर अबतक तो हिंसाके ही किसी-न-किसी रूपका और मुख्यतः हिंसामें विश्वास रखनेवालोंकी इच्छापर आधारित कृत्रिम अवरोधोंका ही प्रयोग करके देखा गया है। जब परीक्षाकी घड़ी आई है तो स्वभावतः कृत्रिम अवरोध असफल सिद्ध हुए है। इसलिए, मुझे लगता है कि अगर यूरोपके जनसाधारणको मुक्ति पानी है तो उसे देर-सबर अहिंसाकी शरणमें जाना ही होगा। इस बातसे मुझे कोई परेशानी नहीं होती कि उनसे सामूहिक रूपसे और तत्काल इसे अपना लेने की आशा नहीं है। विशाल काल-चक्रमें कुछ हजार वर्ष तो एक बिन्दुमात्र है। किसी-न-किसीको अडिग आस्थाके साथ शुरुआत तो करनी ही होती है। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि सर्वसाधारण, यूरोपका सर्वसाधारण भी, इसके प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया दिखायेगा, लेकिन जिस दिशामें शीघ्रता करनेकी आवश्यकता है, वह अहिंसाका व्यापक प्रयोग नहीं, बल्कि मुक्तिका क्या अर्थ है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करना है।