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पाश्चात्य देशोंका उद्धार कैसे हो?


आखिरकार वह कौन-सी चीज है, जिससे सर्वसाधारणको मुक्ति पानी है? "शोषण और दुर्दशा"—इस तरहका कोई अस्पष्ट और सामान्य-सा उत्तर देनेसे काम नहीं चलेगा। क्या इसका उतर यह नहीं है कि वे लोग उस स्थानपर आसीन होना चाहते हैं, जिसका उपभोग आज पूंजीपति कर रहे है? अगर ऐसा हो, तो इसे पानेका एक मात्र उपाय हिंसा ही है। लेकिन, अगर वे पूंजीवादकी बुराइयोंसे बचना चाहते हैं, दूसरे शब्दोंमें, अगर वे पूंजीपतियोंके दृष्टिकोणमें परिवर्तन करना चाहते है तो वे श्रमके फलके अधिक न्यायोचित वितरणके लिए प्रयत्न करेंगे। यह चीज सहज ही स्वेच्छासे अपनाये गये सन्तोष और सादगीकी ओर संकेत करती है। इस नये दृष्टिबिन्दुको अपना लेने के बाद भौतिक आवश्यकताओंकी वृद्धि जीवनका उद्देश्य नहीं रह जायेगी : इसके बजाय जरूरी सविधाओंको ध्यानमें रखते हए जहाँतक उन आवश्यकताओंको कम करना सम्भव होगा, वहाँतक उन्हें कम करना ही जीवनका उद्देश्य होगा। फिर, हम इस बातकी चिन्ता छोड़ देंगे कि हम क्या-कुछ पा सकते हैं; और फिर जो-कूछ सबको नहीं मिल सकता, उसे ग्रहण करनेसे अपना हाथ रोक लेंगे। मुझे लगता है कि यूरोपकी आम जनतासे आर्थिक लाभोंके नामपर भी सफल अनुरोध किया जा सकता है। उसमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। और ऐसा प्रयोग अगर काफी सफलतापूर्वक किया जा सके तो अनायास ही उससे ऐसे बहुत भारी आध्यात्मिक परिणाम भी जरूर निकलेंगे जिनकी अभी हमें खबर भी नहीं है। मैं नहीं मानता कि आध्यात्मिक नियम अपने विशिष्ट क्षेत्रमें ही काम करता है। सच तो यह है कि इस नियमको अभिव्यक्ति जीवनके सामान्य क्रिया-कलापके माध्यमसे ही होती है। इस प्रकार यह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक—सभी क्षेत्रोंको प्रभावित करता है। मैंने जो दृष्टिकोण सुझाया है, अगर यूरोपके जनसाधारणको उसे स्वीकार करने को तैयार किया जा सके तो आप देखेंगे कि इस उद्देश्यको प्राप्त करने के लिए हिंसा सर्वथा अनावश्यक होगी, और वह अहिंसासे फलित नियमोंपर चलकर अपना प्राप्तव्य प्राप्त कर सकेगा। यह भी हो सकता है कि जो चीज मुझे भारतके लिए इतनी स्वाभाविक और व्यवहार्य प्रतीत होती है वह भारतकी सुषुप्त जनताकी अपेक्षा यूरोपको जाग्रत जनतामें जल्दी फैल जाये। लेकिन, मुझे अपनी इस स्वीकारोक्तिको एक बार फिर दोहरा देना चाहिए कि मेरी यह पूरी तर्क-शृंखला अमुक मान्यताओंपर आधारित है, और इसलिए इसे जरूरतसे ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३–९–१९२५