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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन्होंने कहा, मैं दादाभाईका सच्चा पुजारी हूँ और अगर मेरे देवतामें कुछ दोष भी रहे हों तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप सब इस सभामें दादाभाईके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने आये हैं, पर आपमें से कितने लोग सचमुच ऐसा करना चाहते हैं? दादाभाईने मुझे दो बातें सिखाई थीं : पहली तो यह कि अपने देवताको अपना पूरा स्नेह, अपनी पूरी श्रद्धा दो, पूरे मनसे उसकी पूजा करो और दूसरी यह कि अगर भारतकी सेवा करना चाहते हो तो गरीबोंकी सेवा करो। गरीबोंकी सेवा स्वयं सबसे गरीब, सबसे अदना आदमी बनकर, भारतमें रहनेवाली सभी जातियोंके साथ एकात्म होकर हिन्दू, मुसलमान और पारसी बनकर ही की जा सकती है। दादाभाईके लिए सभी भारतीय समान थे। दादाभाई स्वयं कट्टर पारसी थे, पर वे दूसरी जातियोंको नापसन्द नहीं करते थे। वे तो अंग्रेजोंका भी आदर करते थे। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि दुनियाके हिताहितको भूलकर भारतको महान् बनना है। वे तो संसारकी भलाईके लिए भारतके हितोंका भी बलिदान करने को तैयार रहते थे। पर ऐसा करने के लिए राष्ट्रका स्वतन्त्र होना जरूरी था, और वे जानते थे कि एक गुलाम राष्ट्र कुछ नहीं कर सकता। इस प्रकार अपने श्रेष्ठ जीवन द्वारा वे स्वतन्त्रता और स्वाधीनताकी देवीको पूजा करते रहे। कहते हैं, एक तुच्छ फूलकी भेंटसे भी ईश्वर प्रसन्न हो जाता है। इससे प्रकट होता है कि यदि हम सच्चे दिलसे उसे प्रसन्न करना चाहें तो यह कितना सरल है। दादाभाईको शताब्दी मनानेका सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम देश-सेवाके लिए प्रतिज्ञा करें। मैं आपसे यह नहीं कहता कि आप दादाभाईके चरण-चिह्नोंपर ही चलें, मैं तो यह कहता हूँ कि आप ऐसे काम करें, जिनसे उनकी आत्मा प्रसन्न हो। जो व्यक्ति निश्छल और सच्चे मनसे भारतकी अनवरत सेवा कर सकता है, वह सदैव हमारे आदरका पात्र रहेगा, और भारतको एसीसेवा करना ही दादाभाईकी शताब्दी मनानका एक-मात्र तरीका है। (हर्षध्वनि)

[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, ७–९–१९२५