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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गोशालामें हर साल कमसे-कम दस हजार नये जानवर तैयार होने चाहिए। इस संस्थामें तो इतने जानवर पलते भी नहीं हैं। इसमें संचालकोंका दोष नहीं है और न वे कोई धोखा-धड़ी ही करते हैं। जो मन्त्री मुझे यह संस्था दिखाने ले गये, वे संस्थाकी यथाशक्ति सेवा कर रहे हैं। किन्तु यहाँ पद्धतिका दोष है। हममें ऐसी संस्थाओंके संचालनके ज्ञानका अभाव है। इसीसे लोगोंको ऐसी संस्थाओंसे पूरा लाभ नहीं मिलता।

ऐसी संस्थाके संचालक यदि खुद पैसा नहीं खाते, तो इतने से ही यह मान लिया जाता है कि संस्था ठीक चल रही है। किसी भी ऐसे व्यापारिक कार्यमें जिसमें हर साल ढाई लाख रुपये की पूंजी लगाई जाती हो, अच्छेसे-अच्छे वैतनिक कर्मचारी रखे जाते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने निजी कामकाजमें लगे व्यापारी लोंग सेवा-भावसे अपना थोड़ा समय इस संस्थाको दे देते हैं। इस तरह अपना समय देनेवाले धन्यवादके पात्र है। किन्तु इससे गोमाताकी रक्षा नहीं हो जाती। गोमाताकी रक्षाके लिए तो क्षण या तो ज्ञानवान, तपस्वी और त्यागी ही दे सकते हैं, या फिर कार्यकुशल भोगी लोग उचित वेतन लेकर। धार्मिक दृष्टिसे दान करनेवाले लोग भले ही कार्यकुशल न हों, किन्त जो धर्मार्थ संस्थाओंको चलाते हैं, उनमें तो व्यापारीसे भी ज्यादा, कुशलता, उद्यम इत्यादि होने चाहिए। व्यापारियोंके लिए जो नीति-नियम होते है, वे सब धर्मार्थ संस्थाओंपर भी लागू होने चाहिए। गोशालाएँ यदि व्यापारिक दृष्टिकोणसे चलाई जाये तो उनमें उस शास्त्रका विशेष ज्ञान रखनेवाले लोग काम करेंगे, और वे नित्य नये प्रयोग करके अधिकाधिक गायोंकी रक्षा करेंगे—गोशालामें पशु-पालनके, दूधकी स्वच्छताके, दूध बढ़ाने के अनेक प्रयोग करेंगे और यह तो स्पष्ट ही है कि पशु-पालनका जो ज्ञान गोशालाके द्वारा मिलता है, वह और कहीं नहीं मिल सकता। किन्तु गौशाला एक धर्मार्थ संस्था है, इसलिए वह चाहे जैसे ढंगसे चलती रह सकती है, उसकी कोई फिक्र ही नहीं करता! वेदकी पाठशालामें यदि वेदोंका ज्ञान कमसे-कम मिले तो जिस प्रकार यह वेदोंकी अवमानना है, वैसी ही हालत वर्तमान गोशालाओंकी भी है।

लिलुआकी गोशालाके लिए जो जगह चुनी गई है, उसके उपयुक्त होनेके विषयमे मुझे सन्देह है। मुझ-जैसा गोशाला-शास्त्रसे अनभिज्ञ व्यक्ति भी कह सकता है कि वहाँकी इमारतें ठीक नहीं है। वहाँ दूध इत्यादिकी परीक्षा करनेका कोई साधन नहीं है। यह भी कोई नहीं जानता कि गायें अभी जितना दूध दे रही है, मालिकके होते हुए भी बिना मालिककी है। संस्थाके संचालकोंको मेरी तो यह सलाह है कि वे गोशाला संचालनके शास्त्रज्ञोंकी सलाहसे वेतन देकर कुशल लोगोंके द्वारा अपना कार्य करें। गोशालामें पशुओं और साँड़ोंका पालन, बधिया करनेकी क्रियामें सुधार, पशुओंकी खुराक, उसके बोने के साधन, दूध दोहनेकी स्वच्छ क्रिया, चमड़ा उतारकर उसे साफ करनेकी क्रिया—इन बातोंका ज्ञान प्राप्त होना चाहिए। इस