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टिप्पणियाँ


सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन स्कूलोंमें बहुत बड़ी तादादमें अछूत लड़के शिक्षा पा रहे हैं। कहते हैं, उनके माता-पिताओंसे इसके लिए ज्यादा कहना-सुनना नहीं पड़ता है। वे अपने लड़कोंको खुशीसे भेज देते है। अगर अपने बच्चोंको स्कूलोंमें भेजने के लिए किन्हींको मनाना भी पड़ता है तो वे गैर अछूत बच्चोंके माता-पिता कहने की जरूरत ही नहीं कि ये सभी स्कूल सरकारसे न किसी तरहकी सहायता पाते हैं, और न इनपर किसी तरहका सरकारी नियन्त्रण ही है।

विद्यार्थी स्वच्छ रहें, इसकी ओर खास ध्यान दिया जाता है। निःसन्देह इन स्कूलोंकी तुलना भारतवर्षके किन्हीं भी दूसरे प्राथमिक स्कूलोंसे की जा सकती है। ये स्कूल उनसे अच्छे ही उतरेंगे। मैं तमाम शिक्षकोंका ध्यान विद्यार्थियोंके साफसुथरा रहनेकी आवश्यकताकी ओर दिलाता हूँ। इसके लिए सिर्फ इतना ही करना होगा कि पढ़ाई शुरू होनेसे पहले सब लड़कोंको एक कतारमें खड़ा करके उनके दांत, नाखून, कान, आँख वगैरह देख लिये जायें। इसमें कुछ ज्यादा परिश्रम नहीं होगा। मैंने उन स्कूलोंमें भी सामान्य बातोंकी उपेक्षा देखी है, जो अपनेको आदर्श स्कूल कहनेका दावा करते हैं।

क्या यह अति-विश्वास है?

मेरे एक सम्माननीय मित्र है, जिन्हें इस बातकी बड़ी चिन्ता बनी रहती है कि उचित आचरण करनेवाले व्यक्तिके रूपमें मेरी जो ख्याति है, उसपर कोई आँच न आने पाये। उन्होंने मुझसे पूछा है कि आपने अभी हाल ही में जो पूरे मनसे स्वराज्यवादियोंका समर्थन करनेका रवैया अपनाया है, उसके सर्वथा उचित होनेका विश्वास आपको किस आधारपर है। क्या आपने हिमालय-जैसी जबर्दस्त भूलें नहीं की हैं? क्या आप नहीं देखते कि आपके बहुत-से अपरिवर्तनवादी मित्र, आपके उस रवैये से, जिसे वे आपके आचरणकी एक असंगति मानते हैं, बड़ी दुविधामें पड़ गये हैं? आपको अपनी स्थितिके सही होनेका यह विश्वास है, उसमें कहीं अति विश्वासका दोष तो नहीं है?

मैं ऐसा नहीं समझता। कारण, सत्यके उपासकको अपने दृष्टिकोणमें सदा पूरा विश्वास होना ही चाहिए, यद्यपि उसे शंकाशील रहनेकी भी उतनी ही जरूरत है। सत्यकी उपासनाके लिए यह जरूरी है कि उसे अपनी बातका पूरा विश्वास स हो। साथ ही चूंकि वह जानता है कि मनुष्य प्रकृतिसे ही ऐसा है कि उससे भूल होनेकी सम्भावना बनी रहती है, उसे नम्र अवश्य बनना चाहिए और इसलिए ज्यों ही उसे अपनी भूल दिखाई दे, उसे अपना कदम पीछे हटाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस बातसे कि उसने पहले हिमालयके समान भारी भूलें की है, उसके विश्वासमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसकी भूलोंकी स्वीकृति और उनके लिए किया गया प्रायश्चित्त, उसे भावी कार्यके लिए और भी दृढ़ता प्रदान करता है। भूलका ज्ञान सत्यवतीको किसी बात को मानने और निष्कर्ष निकालने में अधिक सावधान बना देता है; पर एक बार जहाँ उसने अपने मनमें निश्चय कर लिया, उसका विश्वास अटल बन जाना चाहिए।