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९१. ग्रामसेवाका एक प्रयोग

ग्राम-निर्माणमें रुचि रखनेवाले लोगोंको नीचे लिखा विवरण[१] बहुत दिलचस्प लगेगा :

यह अनेक दृष्टियोंसे एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। इस गाँवमें बिना शोरगुल, दिखावे और लगभग बगैर किसी पूंजीके खामोशीके साथ अच्छा काम होता रहा है। और यह हो इसलिए सका है कि लोग अपने लिबासके कपड़े के सम्बन्धमें रुचि परिवर्तन तथा अपनी फुर्सतके समयका उपयोग करनेके लिए तैयार थे। गाँवकी आबादी ६४० है। कपड़ेपर उसके खर्चका अनुमान ३,६४० रुपये है। इसलिए जब तमाम ग्रामवासी खादी पहनने लगेंगे तब वे अपने गाँवकी वार्षिक आमदनीमें ३,६४० रुपये बढ़ा लेंगे और सो भी बेकार बीतनेवाले समयका उपयोग करके ही। ग्राम-निर्माणकी कोई अन्य ऐसी योजना नहीं है, जिससे इतना बढ़िया और प्रत्यक्ष फल इतना शीघ्र देखनेको मिल सकता हो। यह खादी-कार्य पारस्परिक सहयोगका भी एक पदार्थ परक पाठ है। और वह समय आनेतक जबकि खादी ग्राम-जीवनका एक स्थायी अंग बन जायेगी, निःस्वार्थ ग्रामकार्यकर्ता, यदि चाहें तो खादीके साथ-साथ स्वच्छता, शिक्षा और सामाजिक सुधारका काम भी उठा सकते हैं और उसे आगे बढ़ा सकते है। यही व्यावहारिक स्वराज्य है। जरा उस दिनकी कल्पना कीजिए कि जब ऐसे हजारों गाँव खादीके सूत्र में एक-दूसरेसे बँध जायेंगे। फिर आप देखेंगे कि स्वराज्य किस तरह आपके माँगनेभरसे मिल जाता है। कारण, जब भारत विदेशी कपड़ेका त्याग करना सीख लेगा तब अंग्रेजोंके कितने ही अवांछित कार्योंके लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जायगी और सच्चे स्वराज्यका रास्ता तैयार हो जायेगा। मुझे आशा है कि कुनूर गाँवके सद्गृहस्थ तबतक दम न लेंगे जबतक हर स्त्री-पुरुष और बालक बराबर खादी पहनने न लग जायेगा। यह भी आशा करनी चाहिए कि इस प्रवृत्तिका स्पर्श अकेले पुडूरतक ही सीमित न रहेगा, बल्कि वह एक-एक करके सभी गाँवोंतक पहुँच जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १०–९–१९२५
  1. यह कोयम्बटूर जिलेके कुनूर नामक ग्राममें चरखे और खद्दर-प्रचारकी प्रगतिका विवरण था।