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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रतिष्ठाके बलपर जूझना चाहिए। लेकिन आम लोगोंकी शिक्षाके सम्बन्धमें यह नियम लाग नहीं किया जा सकता। अगर किसी गांवमें शिक्षा देनी हो तो उसी गाँवके लोगोंको इस कार्य में मदद करनी चाहिए। यदि वे मदद नहीं करते तो हमें समझ लेना चाहिए कि वहाँ ऐसी संस्थाकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसमें कई बार दोष सेवकका ही होता है। उसमें चरित्रका, प्रबन्ध करने की क्षमताका अथवा उद्यमका अभाव हो सकता है। ऐसे सेवकको धैर्यसे काम लेना चाहिए। उसे अपना चारित्रिक बल बढ़ाना चाहिए, अनुभवके द्वारा कार्य-कुशलता प्राप्त करनी चाहिए और खूब मेहनत करके उद्यमी बनना चाहिए। इसका ही दूसरा नाम तपश्चर्या है। तपसे ही पृथ्वीका निर्वाह होता है, तपसे ही पार्वतीने शिवको प्राप्त किया, तप द्वारा ही सावित्रीने सत्यवानको पुनर्जीवित किया, लक्ष्मणने मेघनादको पराजित किया और रामने रावणको हराया। आधुनिक कालके उदाहरण तो हमारी नजरोंके सामने ही है। अतएव साथियोंको मेरी खास सलाह यह है कि उन्हें स्थानीय सहायता प्राप्त करनी चाहिए और जहाँ उन्हें स्थानीय सहायता नहीं मिलती वहाँ उन्हें अपनी गतिविधि सीमित कर लेनी चाहिए।

अब प्रान्तीय कमेटीकी मर्यादाओंपर विचार करें। प्रान्तीय कमेटी पैसा कहाँसे लाती है? जिलोंसे। यदि सारे जिले उससे मददकी अपेक्षा करें और उसे कुछ न दें तो क्या होगा? नियम तो यह है कि आप प्रान्तीय कमेटीको [धन] दें और उसमें से लें। प्रान्तीय कमेटी भी यदि गुजरातके बाहरसे पैसा लेकर अपना कामकाज चलाना चाहे तो मैं तो प्रान्तीय कमेटीको भी बन्द करनेकी सलाह दूँगा और यही कारण है कि मैं हमेशा यह सलाह देता रहा हूँ कि गुजरातको मुख्य रूपसे गुजरातियोंके पैसेपर ही निर्भर रहना चाहिए। यह स्वराज्यकी कुंजी है। स्थानीय स्वातन्त्र्यका मतलब है स्थानीय दायित्व। झूठी लज्जाके अधीन होकर हमें एक भी संस्था चलानेका लोभ नहीं करना चाहिए। धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसके पालनमें लोकमत की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। और धर्मपालनका अर्थ है मृत्युके लिए तत्पर रहना। उसमें आर्थिक सहायताकी आवश्यकता नहीं होती। पुस्तकालय चलाना अथवा स्कूल चलाना क्या किसीका धर्म हो सकता है? असहयोग करना धर्म है। उसे चलाने के लिए हमें असुविधाएँ उठानी पड़ती है। इसके लिए आर्थिक सहायताको आवश्यकता नहीं होती। जिस गाँवके लोग अपने बच्चोंको मुझसे न पढ़वाना चाहें वहाँ जाकर मेरा उनकी इच्छाके विरुद्ध उनके बालकोंको अपनी ओर आकर्षित करने का सवाल ही नहीं उठता। यदि वे बालकोंको भेजने के लिए तैयार हों, लेकिन पैसा न दें तो इसका अर्थ यह हुआ कि वे दान माँगते है। दान तो तभी मिल सकता है जब उनमें उसकी पात्रता हो। ऐसे पात्र तो वे अन्त्यज ही हैं, जिनके प्रति हमने आजतक अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया है। इसलिए हर वस्तुके सम्बन्धमें प्रान्तीय कमेटीसे मददकी अपेक्षा करना व्यर्थ है। प्रान्तीय कमेटी यदि दबावमें आकर मदद देती है तो वह दोषी ठहरती है और उस हालतमें उसके बन्द होने की नौबत आ सकती है। इस समय कितनी ही प्रान्तीय कमेटियोंकी ऐसी स्थिति है, इसका मै साक्षी हूँ।