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टिप्पणियाँ

हो, जी आदतन् हाथ-कती, हाथ-बुनी खादी पहनते हों, जो सब जातियोंकी एकतामें विश्वास रखते हों और यदि वे हिन्दू हैं तो वे अछूत कहलानेवाले भाइयोंके सक्रिय हिमायती हों, और यह मानते हों कि अस्पश्यता-रूपी कलंक अविलम्ब दूर होना चाहिए, और जो नशीली वस्तुओंके पूर्ण निषेधके पक्षमें हों और कांग्रेसके तमाम प्रस्तावोंका पालन करते हों। यदि मुझे ऐसे उम्मीदवार न मिले तो मैं अपना मत अपने पास रख छोड़ेंगा। वोट न देना भी मत-दाताके अधिकारका उसी तरह प्रयोग करना है, जिस तरह कि उसका देना।

उसके बाद प्रोफेसर महोदयने मुझसे ब्राह्मणका लक्षण पूछा। मैंने कहा कि ब्राह्मण वह है जो अपने धर्म और देशके लिए अपनेको स्वाहा कर दे और उनकी सेवाके लिए खुशीसे गरीबीका जीवन अंगीकार करे। इसपर उन्होंने तुरन्त यह प्रश्न किया, "क्या ऐसे ब्राह्मण है भी?" मैंने जवाब दिया, "बहुत नहीं, पर शायद जितने आपके खयालमें हैं उससे अधिक होंगे।"

प्रिय और अप्रिय सत्य

हाल ही में प्रकाशित हुए एक पत्र-लेखकके एक पत्रसे मैंने कुछ वाक्य निकाल दिये थे। उसके सिलसिले में वे शिकायत करते हैं :

मेरे उस पत्रसे आपने जो कुछ अंश निकाल डाला, उसके बावजूद में कह सकता हूँ कि आपको भेजे अपने तमाम पत्रोंमें, और खासकर उनमें जिनका सम्बन्ध साम्प्रदायिक प्रश्नोंसे है, मैंने 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्', इसका नहीं बल्कि विलियम लॉयड गैरिसनके उस वचनका पालन किया है, जो कि बम्बईके 'इंडियन सोशल रिफॉर्मर' में उसके ध्येय-वाक्यको तरह मुख-पृष्ठपर ऊपर ही छपता है; वचन यह है : "मैं सत्यकी तरह कठोर और न्यायकी तरह अटल रहूँगा।"

कठोर सत्यपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हाँ, तीखे चटपटे सत्यपर जरूर मुझे ऐतराज है। तीखी चटपटी भाषा सत्यके लिए उतनी ही विजातीय है जितनी कि नीरोग जठरके लिए तेज मिचें। जो वाक्य मैंने हटा लिये थे वे लेखकके आशयको स्पष्ट करने के लिए या उसे ज्यादा प्रभावोत्पादक बनानेके लिए आवश्यक न थे। वे न तो उपयोगी थे, न आवश्यक; उलटा दिल दुखानेवाले थे। ऐसा विचार करनेका रिवाज-सा पड़ गया दिखाई देता है कि सच बोलनेके लिए मनुष्यको कठोर भाषाका प्रयोग करना चाहिए, हालाँकि जब सत्य अप्रिय भाषामें उपस्थित किया जाता है, तब सत्यकी हानि ही होती है। यह ऐसा ही है जैसा कि शक्तिको सहारा देनेकी कोशिश करना। सत्य स्वयं ही पूर्ण शक्तिमान् है और उसे कड़े शब्दोंका सहारा देनेकी चेष्टा करना, सत्यका अपमान करना है। मुझे उस संस्कृत-वचनमें और गैरीसनके उस ध्येय-वाक्यमें कोई विरोध नहीं दिखाई देता। मेरी रायमें उस संस्कृत श्लोकका अर्थ है कि मनुष्यको सत्य मृदु भाषामें बोलना चाहिए। यदि कोई मृदुलतासे ऐसा न कर सके तो बेहतर है कि वह चुप रहे। इसका आशय यह है कि जो मनुष्य अपनी जिह्वाको