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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

काबूमें नहीं रख सकता उसमें सत्यका अभाव है। दूसरे शब्दोंमें कहें तो अहिंसारहित सत्य, सत्य नहीं, बल्कि असत्य है। गैरीसनके वचनका अर्थ उसके जीवनको सामने रखकर लगाना चाहिए। वह अपने समयका एक नम्रसे-नम्र मनुष्य था। इस वचनमें प्रयक्त उसकी भाषाको देखिए; वह कहता है—मैं सत्यकी तरह कठोर होऊँगा। पर चूंकि सत्य कठोर हो तो वह सत्य नहीं रह जाता और इसलिए वह कभी कठोर नहीं होता बल्कि हमेशा प्रिय और हितकर होता है, अतः उस वचनका यही अर्थ हो सकता है कि गैरीसन उतना ही नम्र होगा जितना कि सत्य। दोनों बचन बक्ता या लेखककी आन्तरिक अवस्थासे सम्बन्ध रखते हैं, उस प्रभावसे नहीं जो कि उन लोगोंपर पड़ेगा, जिनके सम्बन्धमें वह लिखा या कहा गया हो। 'इंडियन सोशल रिफॉर्मर' यदि कटु बात करता भी है तो बहुत ही कम। वह सबके साथ न्यायोचित व्यवहार करता है। हालाँकि कभी-कभी वह जल्दीमें अपनी धारणा बना बैठता है और आगे चलकर व्यक्ति और वस्तुके सम्बन्धमें अपने ये अनुमान उसे बदलने पड़ते हैं। इन दिनों जब कि चारों ओर कटता फैली हुई है, बडी सावधानी बरतनेकी आवश्यकता है। और आखिर पूर्ण सत्य तो जानता ही कौन है? मामूली व्यवहारमें तो सत्य सिर्फ एक सापेक्ष शब्द है। जो बात मेरे नजदीक सत्य है वही आवश्यक रूपसे मेरे अन्य साथियोंके नजदीक सत्य नहीं हो सकती। हम सब उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्होंने हाथोको टटोल-टटोलकर उसका जुदा-जुदा वर्णन किया था; और उनकी बुद्धि और विचारके अनुसार वे सब अपनी-अपनी जगह सही थे। परन्तु हम यह भी जानते हैं कि वे सब गलतीपर थे। उनमें से हर आदमी सत्यसे बहुत दूर था। इसलिए कटुतासे बचने की कोई जितनी भी कोशिश करे, कम है। कटुता दृष्टिको धुँधला कर देती है, और उपरोक्त कथाके चारों अन्धे जिस सीमा तक सत्यको देख पाये, कटुतासे भरा आदमी उतना भी नहीं देख पाता।

प्रश्नमाला

एक बहुत अच्छे राष्ट्रीय कार्यकर्त्ताने कुछ प्रश्न मेरे पास उतर देने के लिए भेजे हैं। ये प्रश्न उत्तर-सहित नीचे दिये जाते हैं :

आप कहते हैं कि हमें स्वराज्यवादी दलकी सहायता करनी चाहिए। यहाँ सहायतासे आपका क्या तात्पर्य है?

मेरा तात्पर्य यह है कि हरएक मनुष्य जहाँतक उसकी आत्मा गवाही दे वहाँ तक अपनी योग्यताके अनुसार इस दलकी ज्यादासे-ज्यादा मदद करे। इस प्रकार जिस मनुष्यका मन विधान सभा सम्बन्धी कार्यक्रमकी ओर झुकाव रखता हो और जिसे ऐसा करने में कोई तात्त्विक ऐतराज न हो वह इस दलमें सम्मिलित हो सकता है। जिसको तात्त्विक ऐतराज हो वह उससे अलग रहे; पर दलमें सम्मिलित होनेकी बात छोड़कर बाकी जितनी भी सहायता कर सके, करे। मुमकिन है उसे मत देने में भी आपत्ति हो। ऐसी हालतमें वह मतदान न करे। पर किसी भी हालतमें वह उस दलकी निन्दा न करे।