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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी नहीं है; किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि जितने सदस्योंके ताम रजिस्टरमें दर्ज किये गये थे उनमें से एक चौथाईसे भी कम लोगोंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की है। किन्तु, जिस उत्साही कार्यकर्ताको अपने-आपमें और अपने उद्देश्यमें विश्वास है, उसे इन आंकड़ोंसे हताश होनेकी जरूरत नहीं है। मगर साथ ही उन्हें अपने रास्तेकी कठिनाइयोंको कम करके भी नहीं आँकना चाहिए। स्वराज्यके लिए काम किये बिना हम स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकते। कांग्रेसियोंको वादे करके उन्हें भूल जानेकी गन्दी आदत हो गई है—और विशेषकर तब जब उन वादोंका सम्बन्ध कुछ काम करने से हो। जीवनके सामान्य मामलों में तो हम जो वादा करते हैं उसे हमसे पूरा करवाया जाता है, किसी भी व्यापारिक लेन-देनके मामलोंमें वादा तोड़नेपर जुर्माना किया जाता है। सुसंगठित समाजोंमें किसी भी स्वैच्छिक संगठनको, स्वेच्छासे दिया गया वचन सम्बन्धित व्यक्तिके लिए किसी व्यापारिक लेन-देनके सम्बन्धमें किये गये वादेसे कहीं अधिक बन्धनकारी होता है। इस प्रकार जो ऋण कानूनके बलपर वसूल किया जा सकता हो उसके मुकाबले बिना किसी लिखा-पढ़ीके लिए ऋणकी अदायगीको प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन न जाने क्यों कांग्रेसको दिये गये वचनोंके सम्बन्धमें अभीतक कर्तव्यकी वैसी भावना नहीं आ पाई है जैसी कि हम बिना लिखा-पढ़ीके लिये गये ऋणकी अदायगीके दायित्वके सम्बन्धमें देखते हैं। जिनका खादीमें विश्वास नहीं है, वे निस्सन्देह ऐसा कहेंगे कि गुजरातके आँकड़े कताई सदस्यताकी सम्पूर्ण निष्फलताके जीते-जागते प्रमाण हैं। ऐसे आलोचकोंसे में सहमत नहीं हूँ। कताई सदस्यताके कारण हमें यह मालूम हो गया है कि हमारी सबसे बड़ी कमजोरी क्या है। याद रहे कि चवन्निया सदस्यता भी इससे कुछ अधिक सफल नहीं साबित हई थी।

जिन लोगोंने एक बार अपने नाम दर्ज करा लिये वे फिर दुबारा स्वेच्छासे अपना चन्दा देने नहीं आये। और अगर मासिक चन्दा देनेकी बात होती तो उनमें भी उतने ही वादा-शिकन लोग निकलते जितने कि कातनेवालोंमें निकले हैं। लेकिन, कुछ पैसा देनेका दायित्व एक बात है और हर रोज कुछ काम करनेका दायित्व बिलकुल दूसरी बात है। स्वराज्य कोई पैसे का लेन-देन नहीं है। इसे पैसेसे नहीं खरीदा जा सकता। इसे तो निरन्तर, पूरे जोर-शोरसे ठोस कामके बलपर ही प्राप्त किया जा सकता है। और मैं तो यह कहनेकी धृष्टता करूँगा कि अगर कांग्रेसने अपने सदस्योंको कताईके बजाय प्रतिदिन आधे घंटेतक पेंसिल छीलनेका दायित्व सौंपा होता तो भी हमें ऐसा ही नतीजा देखने को मिलता। इसलिए इन आँकड़ोंपर विचार करनेके बाद मैं उनसे यही सबक निकालता हूँ कि अगर हमें कांग्रेसको काम करनेवाली प्रभावकारी और शक्तिशाली संस्था बनाना हो तो हमें धैर्य के साथ उसी रास्तेपर आरूढ़ रहना होगा, जिसपर हमने बेलगाँव में अपने कदम बढ़ाये थे। बहुत सम्भव है कि अनिवार्य कताईकी शर्त हटा दी जाये, लेकिन अगर कांग्रेस मताधिकारकी वैकल्पिक शर्तके तौरपर कताईको कायम रखती है तो उसे सफल बनानेके प्रयत्नमें किसी तरहकी ढिलाई नहीं आनी चाहिए। तीस करोडकी आबादीमें से कुछ-एक लाख ऐसे स्त्री-पुरुष पा सकनेमें हमें कठिनाई नहीं होनी चाहिए जो खुशी-खुशी और पूरे अटूट नियमके