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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
उन्होंने कहा, "काम एष, क्रोध एष" हिन्दूधर्मको मान्यताके अनुसार तो यही लगता है कि हमें लुभानेवाले इस शैतानका हमसे अलग कोई अस्तित्व नहीं है, और वह एक भी नहीं है। क्योंकि शास्त्रों में तो मनुष्यके छः शत्रु बताये गये हैं : काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर। इस तरह यह स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म में शैतान, अवपतित देवदूत, प्रलोभक या जिसे एक फ्रांसीसी लेखक (अनातोले फ्रांस) ने "ईश्वरका कारकुन" कहा है, के लिए कोई स्थान नहीं है। तब फिर आप हिन्दू होकर भी इस तरह क्यों बोलते और लिखते है, मानो आप शैतानके अस्तित्वमें विश्वास करते हों?

'यंग इंडिया' के पाठक इन पत्रलेखक भाईसे[१] भलीभाँति परिचित है। वे कुछ इतने जागरूक रहते है कि जिस अर्थमें मैं शैतान शब्दका प्रयोग कर सकता हूँ, उसे वे न जानें—यह तो हो नहीं सकता। लेकिन, मैंने देखा है कि उनकी कुछ ऐसी प्रवृत्ति है कि जिन बातोंके सम्बन्धमें तनिक भी गलतफहमीकी सम्भावना हो या जिनके सम्बन्ध में कुछ ज्यादा स्पष्टीकरण जरूरी माना जा सकता हो, उनके सम्बन्धमें वे मुझसे कुछ कहला कर ही छोड़ते है। मेरे विचारसे तो हिन्दू धर्मकी खूबी उसकी सर्व-संग्राहकतामें है। 'महाभारत' के दिव्य लेखकने अपनी महान् कृतिके विषयमें जो बात कही है[२] वह बात हिन्दु धर्मपर भी उतनी ही लाग होती है। हिन्दू-धर्म में हर धर्मका सार मिलेगा। और जो चीज इस धर्म में नहीं है, वह असार या अनावश्यक है। बेशक, मेरी ऐसी मान्यता है कि हिन्दू धर्ममें शैतानके लिए स्थान है। 'बाइबिल' की शैतान सम्बन्धी कल्पना न नई है और न मौलिक। 'बाइबिल' में भी शैतानका कोई स्थूल अस्तित्व तो बताया नहीं गया है। या फिर यों कहिए कि हिन्दू धर्ममें जितना स्थूल अस्तित्व रावण और समस्त असुर जातिका है, 'बाइबिल' में शैतानका भी उतना ही है। दस सिर और बीस भुजाओंवाले ऐतिहासिक रावण में मेरा उससे कुछ अधिक विश्वास नहीं है, जितना कि ऐतिहासिक शैतानमें है। और जिस प्रकार शैतान और उसके साथी स्खलित देवदूत है, उसी प्रकार रावण और उसके साथी भी अवपतित देवदूत या कहिए अवपतित देवता हैं। अगर बुरे मनोविकारों और मनष्यको ऊपर उठानेवाले विचारोंको इस तरह पेश करना मानो वे देहधारी व्यक्ति हों अपराध है, तो इस अपराधके लिए शायद सबसे अधिक दोषी हिन्दूधर्म ही है। कारण, पत्रलेखक द्वारा उल्लिखित छः मनोविकारों और बहुतसे अन्य मनोविकारोंको भी क्या हिन्दू धर्म में देहधारी व्यक्तियों की तरह पेश नहीं किया गया है? धृतराष्ट्र और उनके सौ पुत्र आखिर क्या है? मानव-जातिके विकासमें कल्पना, अर्थात् कविता ठीक अन्ततक एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक भूमिका निभाती ही रहेगी। हम बराबर इन मनोविकारों की चर्चा इस तरह करते ही रहेंगे, मानो वे देहधारी व्यक्ति हों। क्या वे भी हमें उतनी ही यातना नहीं देते जितनी यातना बुरे लोग देते है?

  1. एस॰ डी॰ नाडकर्णी।
  2. 'थन्न भारते तन्न भारते'।