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गुजरातने क्या किया है?


सूत देकर मताधिकार पानेका नियम बलपूर्वक किसी सरकार द्वारा नहीं लगाया गया है। इसे तो विचारपूर्वक कांग्रेसने निश्चित किया था। और फिर इसके अन्तर्गत जिन्होंने अपने नाम लिखवाये थे, उनपर कोई बलात्कार नहीं किया गया था; उन्होंने स्वेच्छासे ही अपने नाम दिये थे। तथापि २५८० नामोंमें से सूत भेजने वाले केवल ५८० रह गये। इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग कोई काम करना ही नहीं चाहते? इतना ही नहीं; लोगोंकी दृष्टिमें अपने दिये हुए वचनोंकी कोई कीमत ही नहीं है। यदि कोई कहे कि यह बात केवल चरखेके सम्बन्धमें ही लागू होती है, तो यह ठीक नहीं है। जब पैसे देने की बात थी तब भी हस्ताक्षर करनेवाले सब लोग नियमपूर्वक पैसे नहीं देते थे। अब यदि हम चरखा छोड़कर किसी अन्य उद्यमकी बात करें तो उसका परिणाम भी वही होगा जो चरखेका हुआ है। कल्पना कीजिये कि यदि सबसे यह माँग की जाये कि वे आधे घंटेमें नरकटसे जितनी कलमें बन सकतीं हैं उतनी कलमें कांग्रेसको फीसके रूपमें दें तो जितने लोग वचन देंगे उनमें से बहुत कम लोग उसे पूरा करेंगे। यह शिथिलता ही हमारे स्वराज्य-प्राप्तिके विलम्बका कारण है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २०–९–१९२५
 

११३. गुजरातने क्या किया है?

एक असह्योगीने निम्नलिखित ढंगसे अपने मनकी भड़ास निकाली है।[१]

लेकिन मैं समस्त हिन्दुस्तानकी हालतको अच्छी तरहसे जानता हूँ और देख सकता हूँ कि यह कथन एकपक्षीय है। पत्रलेखक इसे नहीं देख सकता और यह स्वाभाविक भी है। वह तो पूरे फलकी फिक्रमें है, इसलिए उससे कममें उसे सन्तोष थोड़े ही हो सकता है। मेरे विचारसे गुजरातमें अन्य प्रान्तोंकी अपेक्षा अधिक कार्य हो रहा है; फिर भी यह इतना कम है कि कोई भी गुजराती इससे सन्तुष्ट होकर निश्चिन्त नहीं बैठा रह सकता। जिसे प्रगति करनी है वह अन्य लोगोंकी अपेक्षा मुझमें कम दोष हैं—ऐसा अभिमान नहीं करता; वह तो निरन्तर अपने दोषोंका ही अध्ययन करते रहता है और उसे अपने में जो दोष दिखाई देते है वह उनपर शर्मिन्दा होता है, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है। यदि लोग परस्पर एक दूसरेकी टीका करनेकी अपेक्षा अपने-अपने दोषोंका अवलोकन करने लगे तो धरतीका बहुत सारा बोझ हलका हो जाये।

इसलिए मैं उपर्युक्त पत्रका स्वागत करता हूँ। यदि हम खादीके सम्बन्धमें ली हुई प्रतिज्ञाका ही पूरी तरहसे पालन करें तो हम बहुत-कुछ कर सकते हैं। थोड़ा,

 
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें पत्र लेखक ने शिकायत की थी कि यधपि गुजरात अपरिवर्तनवादियों का गढ़ है फिर भी उसने रचनात्मक कार्यमें अपेक्षित प्रगति नहीं की‌ है।