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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किन्तु अच्छी तरहसे किया हुआ कार्य ही स्थायी होता है। बहुत ज्यादा लेकिन जैसे-तैसे किये हुए कार्य क्षणिक, अधिकांशतः निरर्थक और कभी-कभी भयंकर सिद्ध होते हैं। जो राज औजारोंका उपयोग किये बिना बहुत कम समयमें तिरछी दीवार चुनकर मकान बना देता है वह मकान देखने में सुन्दर भले ही हो, लेकिन वह पहली ही बरसातमें ढह जायेगा और उसमें रहनेवाले लोग भी खतम हो जायेंगे। लेकिन जो राज धीरजके साथ और ज्ञानपूर्वक दोषरहित पक्की और सीधी दीवार चुनेगा कदाचित् वह समय ज्यादा ले, लेकिन उसकी चुनी हुई दीवार ज्यादा अर्सेतक टिकेगी और उसके कार्यकी कीमत उस पहले आलसी, अप्रामाणिक अथवा अज्ञानी राजकी अपेक्षा कहीं अधिक होगी। यही बात अन्य कार्योके सम्बन्धमें भी लागू होती है।

लेकिन अपनी त्रुटियोंको जानकर उनपर आँसू बहाना अनुचित है। अपनी त्रुटियोंका निरीक्षण तो हमें उनमें सुधार करनेके लिए ही करना चाहिए। हम अपनी त्रुटियोंसे अच्छी तरहसे परिचित हैं और उन्हें दूर करनेका उपाय भी एक ही है।

हममें से जो अपनी [त्रुटियोंको] जान जायें उन्हें निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि उनपर विजय प्राप्त करनी चाहिए। अन्य लोग देखें अथवा न देखें, परन्तु हमें चुपचाप अपना काम करते जाना चाहिए। यदि किसी गाँवमें एक ही व्यक्ति खादीप्रेमी हो और केवल वही चरखा चलाता हो तो भी वह हार नहीं मानेगा अपितु स्वयं नियमपूर्वक कातने बैठेगा और अपने विश्वासपर दृढ़ रहकर चरखा चलाता इस यज्ञका, धर्यका. तपश्चर्याका आसपासके वातावरणपर प्रभाव पडे बिना न रहेगा। सब महान् कार्य इसी तरह हुए हैं। यदि राक्षसोंके दलको देखकर राम हिम्मत हार गये होते तो क्या होता? कौरवोंकी विशाल सेनाके विरुद्ध अपनी छोटी-सी सेना देखकर अगर अर्जुन भाग खड़ा होता तो? यदि गेलीलियो लोकमतसे, धर्मान्ध पादरियोंसे घबराकर अपना विश्वास खो बैठता तो उसका परिणाम क्या होता; हम सारे जगतसे ढूँढ-ढूँढकर ऐसे उदाहरण इकट्ठे कर सकते हैं। प्रारम्भ तो हमेशा एक ही दृढ़ पुरुष अथवा स्त्रीसे होता है और यदि वह व्यक्ति धीरजसे काम लेता है तब या तो समस्त संसारको अपनी ओर आकर्षित करता है अथवा विनम्र एवं सच्चा बनकर अपनी भूलको देखता है, उसे स्वीकार करता है और उसमें सुधार करता है।

कल्याणकृत् किसी व्यक्तिको कभी दुर्गति नहीं होती, यह भगवद्वचन है;[१] सच्चा प्रयत्न करनेवाले सब लोग कल्याणकृत हैं। उनकी भूल भी जगतके लिए हानिकारक सिद्ध नहीं होती और इसके विपरीत जो लोग कल्याणको दृष्टिमें रखकर कार्य नहीं करते उनके अव्यवस्थित चित्तका प्रसाद अथवा कृपा [का परिणाम भी] भयंकर होता है।

ऐसा जानकर जो गुजराती अपने कार्यको समझते हैं उन्हें चाहिए कि वे आगा-पीछा किये बिना सम्पूर्ण श्रद्धा रखते हुए अपने कार्यमें निरत रहें। इसीमें

 
  1. नहि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति। श्रीमद् भागवद्गीता, ५–४०।