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१२२. बिहारका दौरा

मेरा बिहारका दौरा मेरे पुरुलियामें हुए बिहार प्रान्तीय सम्मेलनमें उपस्थित होनेके साथ ही शुरू हुआ। सम्मेलनकी मुख्य कार्यवाहीकी कताई-सदस्यतामें प्रस्तावित परिवर्तनके समर्थन करनेका प्रस्ताव पास करना। सभापतिने अपना भाषण अंग्रेजीमें दिया। क्या ही अच्छा होता यदि मौलवी जुबेर अपना भाषण हिन्दुस्तानीमें देते। तकरीर यों तो बढ़िया थी, पर मैं जानता हूँ कि आधे श्रोता भी उसे नहीं समझ पाये। उसी पण्डालमें हिन्दू-सभा और दूसरे दिन खिलाफत सम्मेलन भी हुआ। मैं चाहता था कि मैं किसी सम्मेलनमें कुछ न बोलूं और मुझे इससे बड़ी प्रसन्नता हुई कि सभी सभापतियोंने मेरी इस इच्छाको मान किया। मैं अब बोलते-बोलते आजिज़ आ गया हूँ। मेरे पास कहने के लिए कोई नई बात नहीं है। मैं घूमता इसलिए हूँ कि मेरा खयाल है, जनता मुझसे मिलना चाहती है। मैं तो अवश्य ही उससे मिलना चाहता हूँ। मैं उसे अपना सीधा-सादा पैगाम थोड़ेसे शब्दोंमें सुना देता हूँ, और जनता तथा मुझे, दोनोंको ही सन्तोष हो जाता है। मेरी बात धीरे-धीरे सही जनताके मनमें पैठ जरूर जाती है।

सम्मेलनके साथ ही एक सुव्यवस्थित औद्योगिक प्रदर्शनी भी थी। उसे देखकर यह स्पष्ट हो जाता था कि खादी असंदिग्ध रूपसे विकास करती जा रही है। वहाँ कताई प्रतियोगिता भी हुई और इनाम बाँटे गये। खादी प्रतिष्ठानके उस्मानको पहला इनाम—स्वर्णपदक मिला। छः सालकी एक छोटी लड़कीने भी इनाम पाया। उसका सूत बुरा न था। उसको इनाम इस बातपर मिला कि छः सालकी होनेपर भी वह होड़में भली-भाँति कात सकी। इस प्रदर्शनीको एक उल्लेखनीय चीज खादी प्रतिष्ठानके क्षितीशबाबू द्वारा खादीपर जादूकी लालटेन (मैजिक लैन्टर्न) की मददसे दिया गया उनका सचित्र व्याख्यान था। लोगोंने उसको खुब पसन्द किया।

अभिनन्दनपत्र और रुपयोंकी थैली भी मिली। थैली अ॰ भा॰ देशबन्धु स्मारक कोषके लिए दी गई। स्त्रियों और पुरुषों, दोनोंकी सभाओं में सभा-स्थलपर भी चन्द्रा एकत्र किया गया। हमेशाकी तरह स्त्रियोंकी सभामें ज्यादा रकम मिली।

मुझे गौलुन्दा गाँवमें भी ले जाया गया। वहाँ सरकारी केन्द्र है, जहाँ चरखेका प्रयोग हो रहा है। प्रयोग दिलचस्प है और यदि वैज्ञानिक रीतिसे किया गया तो अवश्य ही सफल होगा और इसके आश्चर्यजनक फल निकलेंगे।

पुरुलियामें एक पुराना कुष्ठाश्रम देखा। उसकी सारी व्यवस्था लन्दन मिशनरी सोसाइटीकी तरफसे होती है। सबसे पहला कुष्ठाश्रम मैने कटकमें देखा था। पर वह जल्दीमें देखा था। वहाँ मैं सिर्फ कोढ़ियों और सुपरिटेंडेंटसे ही मिल पाया था। वहाँके कार्य और कोढ़ियोंके रहने के स्थान आदिको नहीं देख पाया था। पुरुलियामें मुझे कोढ़ियोंके रहने के स्थानको देखने तथा संस्थाकी कार्य-प्रणालीको समझनेका मौका मिला। दोनों जगहोंपर आश्रमोंके सुपरिटेंडेंट और उनकी पत्नियाँ कोढ़ियोंके प्यारे