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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोगोंमें गलतफहमी हो सकती है, मैंने प्रायश्चित्त किया है, और ऐसा मैंने एकसे ज्यादा बार किया है।[१] फिर भी, मेरे लिए यह असम्भव है कि मैं अपनेको उन लोगोंके कामोंके लिए जिम्मेवार मान, जो ऐसे मामलोंमें मेरा नाम लेनका कोई आधार न होते हए भी मेरे नामपर बुरे काम करेंगे। या फिर लेखकके सुझावका यह अभिप्राय है कि यदि उनकी लिखी बातें सच हों तो मैं स्वराज्यवादी दलको सहायता देना बन्द कर दूँ। में यह तबतक नहीं कर सकता जबतक पण्डित मोतीलाल-जैसे शख्स उसके पथ-प्रदर्शक है और जबतक कि उसकी नीति और सिद्धान्त कायम हैं। स्वराज्यवादी दलको मेरी सामान्य सहायताका अर्थ यह नहीं है कि मैं दलके नामपर अपनाये गये हर तरीकेकी या स्वराज्यवादी दलके हर सदस्यके कामकी ताईद करता है। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्वराज्यवादी दलमें निकम्मे और पाखण्डी लोग है; पर मुझे दुःखके साथ यह भी कहना पडता है कि अभीतक मैं जिन जन-तान्त्रिक संस्थाओं में रहा हूँ उनमें मैने ऐसी कोई संस्था नहीं देखी जो इस तरहके आदमियोंसे अपनेको मुक्त रख सकी हो। मनुष्य अपनेको साफ रखने के लिए अधिकसे-अधिक इतना ही कर सकता है कि वह संस्थाओंकी मूल नीतियों और उद्देश्योंकी और उनके संचालकोंके सामान्य चरित्रकी छानबीन करे और जब उसकी नीतियाँ और उद्देश्य ही आपत्तिजनक हो जायें, या उनके ठीक रहनेपर भी संस्था अप्रामाणिक लोगोंके हाथों चली जाये तो अपना ताल्लुक उससे तोड़ ले। यदि स्वराज्यवादी दलमें कुछ बुरे लोग घुस गये है तो उसमें बहुतसे सुयोग्य, ईमानदार, त्यागी और कठिन परिश्रमी लोग भी है। दूसरे दलोंके मुकाबले में स्वराज्यवादी दल घटिया नहीं साबित होगा। पत्र-लेखक महोदय इत्मीनान रखें कि उनके द्वारा वर्णित तरीकोंको अपनाना यदि किसी भी दलके लिए एक आम बात हो गई हो तो मैं उस दलको चाहे कितना ही बढ़ावा क्यों न दिया उसे कोई सर्वनाशसे नहीं बचा सकता। अतएव पत्र-लेखक महोदयके, सर्वसाधारणके तथा मेरे सामने सवाल यह है कि इस बातका पता लगाया जाये कि स्वराज्यवादी दलने उक्त तरीकोंको कहाँ तक अपनाया है और उनको कहाँतक चलने दिया है? मेरे कर्तव्यका पालन तो इस विषयमें इतने ही से हो जाता है कि मैं इस प्रकारके आरोपोंके सारको प्रकाशित कर दूँ और किसी प्रशंसनीय उद्देश्य के लिए भी अपनाये गये बेजा तरीकोंके प्रति अपनी नापसन्दगी जाहिर कर दूँ। सम्भावना तो यह है कि वे लोग जिनपर पत्र-लेखकने ये इल्जाम लगाये है, उन आरोपोंका खण्डन करेंगे। मैं उनपर सहसा विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि मुझे अनुभवने यह सिखाया है कि जहाँ दलबन्दीकी भावनाका दार-दारा होता है वहाँ एक दल दूसरे दलपर निमल आरोप लगाया करता है। यहाँतक कि मेरा महात्मापन भी स्वयं मुझे ऐसे लांछनोंसे नहीं बचा पाया है जो जानता हूँ बिलकुल असत्य हैं। अभी जब मैं कलकत्तेमें था तब मुझपर 'मनस्यन्यद् वचस्यन्यद्' तथा बेहद असंगतिका आरोप लगाया गया था। रौलट अधिनियमके आन्दोलनके जमाने में पंजाबके कितने ही देशभक्तोंपर बदमाशीका इल्जाम लगाया गया था, जिससे कि वे वस्तुतः बिलकुल मुक्त थे। मैं ऐसे एक भी सार्वजनिक कार्य

  1. देखिए खण्ड २३ और २७।