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सम्पू्र्ण गांधी वाङ्मय

होता। प्रेरक हेतु यदि किसी तीव्र भावनासे युक्त हो तो वह अपना काम अच्छी तरह करता है। हजारों नवयवकोंको किसी सैनिक टुकड़ीमें शामिल होनके पहले राजभक्तिकी शपथ लेनी होगी और बीसों मौकोंपर यूनियन जैकको सलामी देनी होगी। ऐसी हालतमें वे स्वभावतः अपनी राजनिष्ठाका अच्छा परिचय देना चाहेंगे और अपने अधिकारियोंसे गोली चलानेका हुक्म मिलते ही अपने देशभाइयोंपर खुशीसे गोली चलायेंगे। अतएव अहिंसाका परम पुजारी होते हुए भी मैं उन लोगोंको फौजी शिक्षा देनेकी बात तो समझ सकता हूँ जो अमुक परिस्थितिययोंमें शस्त्रका प्रयोग करनेकी आवश्यकताके कायल हैं, तथापि मैं उस सरकारके अधीन रहते हुए, जो कि लोगोंकी आवश्यकताओंकी कतई परवाह ही नहीं करती है, देशके युवकोंके लिए फौजी शिक्षाका प्रतिपादन करनेमें असमर्थ हैं। और अनिवार्य फौजी शिक्षाका तो में हर हालतमें, राष्ट्रीय सरकार स्थापित हो जानेपर भी, विरोध करूँगा। जो लोग फौजी शिक्षा न ग्रहण करना चाहें उनको राष्ट्रीय विश्वविद्यालयोंमें प्रवेश पानेसे रोका नहीं जाना चाहिए। शारीरिक शिक्षाकी बात इससे बिलकुल भिन्न है। वह अन्य विषयोंके न प्रत्येक अच्छी शिक्षा-योजनाका एक अंग हो सकती है और होनी चाहिए।

मिल मजदूरों की दुर्दशा

कलकत्तेसे मिले एक पत्रमें वहाँके मिल मजदूरोंके बारेमें नीचे लिखे आंकड़े और ब्यौरा दिया गया है, दुर्व्यसनोंसे ग्रस्त है और करले लेनेकी बुरी लतके शिकार हैं‌। पत्र लेखकने गांधीजी से पूछा था कि उन्हें बचाने का क्या उपाय है।<ref>यह यहाँ प्रकाशित नहीं किया गया है। रिपोर्टके अनुसार कलकत्तेमें कुल ६, ६२,००० मिल मजदूर थे। रिपोर्टमें बताया गया कि मजदूर लोग निरक्षण है

मैं यह नहीं कह सकता कि ये आँकड़े या यह वर्णन बिलकुल ठीक होगा; पर हाँ आम तौरपर दोनोंको सही माना जा सकता है। पत्र-लेखक लिखते हैं कि स्वर्गीय देशबन्धुने वादा किया था कि 'वे मजदूरोंको उनके इन कष्टोंसे छुटकारा दिलायेंगे' और वह फा-लेखक कहते हैं कि मृत्यु हो जानेसे जिस कामको देशबन्धु शुरू भी नहीं कर पाये उसे अब मैं पूरा करूँ। फिर वे कहते हैं कि आप दस हजार रुपयकी पूंजी जमाकरके सिनेमा कम्पनीके एक कार्यकर्ताको दीजिए, ताकि वह मिलके अहातोंमें मजदूरोंके बीच प्रदर्शन करे और मजदूरोंमें चरखे और करघेको प्रतिष्ठित करे।

लेखकका आशय तो अच्छा है पर वे यह नहीं जानते कि सिनेमासे लोग साक्षर नहीं होंगे, न उन दुर्गुणोंसे मुक्त होंगे जिनका पत्रमें उल्लेख है। बे यह भी नहीं जानते कि मजदूर लोग करघे या चरखेका अवलम्बन एक सहायक पेशेके तौरपर नहीं करेंगे, क्योंकि इसकी उन्हें आवश्यकता ही नहीं है। हाँ, हड़ताल के दिनोंमें या बेरोजगारीके मौकेपर काम आयेगी, इस खयालसे वे कताई या बुनाई सीख सकते हैं। मजदूरोंका नैतिक और सामाजिक सुधार बहुत ही कठिन और श्रमसाध्य काम है। वह धीरे-धीरे होगा और उन्हीं सुधारकोंके द्वारा होगा जो मजदूरोंके बीच ही रहते हों और जो अपने उज्ज्वल चरित्रके द्वारा मजदूरोंको प्रभावित करें और उनके जीवनको बेहतर बनायें। ऐसे कामके लिए किसी पूंजीकी जरूरत नहीं है और जितनी