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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उपयोग आवश्यक है। बिहारके लोग चरखा और खादी अपनायेंगे तभी वे लोगोंकी गरीबी दूर कर सकेंगे, क्योंकि तभी वे किसी दलालके बीचमें पड़े बिना इन गरीबोंको सीधे लाखों रुपये दे सकेंगे। मान लीजिए आप दस आने देकर एक गज खद्दर खरीदते हैं तो वह सारीको सारी रकम जिसमें रुईका दाम भी शामिल है, सीधे गरीबों को मिलेगी। मैन्चेस्टरके और दूसरे विदेशी वस्त्रकी बात तो छोड़ ही दीजिए, अगर आप बम्बईकी मिलोंका कपड़ा खरीदते हैं, तो दामका अधिकांश भाग पूँजिपतियोंको जेबमें जाता है और उसका बहुत ही थोड़ा हिस्सा गरीबोंके हाथ पड़ता है। जब मैं यह कहता हूँ तो इसके माने यह न समझें कि मैं पूजीपतियों द्वारा धन कमानके विरुद्ध हूँ; वैसी बात नहीं है, पर हमारे सामने तो सवाल यह है कि लाखों भूखे गरीबोंको भोजन देना उचित है या उनको जिनके पेट पहले ही खूब भरे हुए हैं। निःसन्देह हमारे आशीर्वादके पात्र तो वे ही हो सकते हैं जो गरीबोंकी भूख मिटाते हैं। खद्दर महंगा होनेपर भी सस्ता है और मिलके कपड़ेसे अच्छा है, क्योंकि उसके द्वारा आप गरीबों को सीधी सहायता कर सकते हैं। इसलिए मैंने खद्दर और चरखेके काममें अपना जीवन अपित करनेका, और ऐसा करके हिन्दू और मुसलमानों-दोनोंको घोर विनाशसे बचानेका निर्णय किया है। मैं चाहता हूँ आप सब अखिल भारतीय चरखा संघके सदस्य बनें। संघको सदस्यता दो प्रकारको है। 'क' वर्गके सदस्योंको प्रतिमास १,००० गज हाथ-कता सूत संघको भेजना है। जो ऐसा नहीं कर सकते वे 'ख' वर्गके सदस्य बन सकते हैं। उन्हें प्रतिवर्ष २,००० गज सूत भेजना है। इसके अलावा सदस्य लोग हमेशा खद्दर और केवल खद्दर ही पहनेंगे।

लेकिन यह सब धनके बिना नहीं हो सकता। इसीलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारक कोषमें जितना हो सके दान दें। इस धनको खद्दर और चरखेके प्रचार कार्यमें लगाया जायेगा।

अन्त में महात्माजीने अस्पृश्यताको भर्त्सना करते हुए कहा कि एक सनातनी हिन्दूके नाते में सभी सनातनियोंसे कहना चाहता हूँ कि अस्पृश्यता महापाप है। तुलसीदासने कहा है कि दया धर्मका मूल है। धर्ममें घृणा और तिरस्कारका कोई स्थान नहीं है। प्रत्येक हिन्दू अपने धर्मका सच्चाईसे पालन करे और दूसरोंके साथ, शान्तिसे, मित्रतासे रहे।[१]

[अंग्रेजीसे]
सर्चलाइट, २७–९–१९२५
 
  1. भाषणके अन्तमें अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारक कोषके लिए चन्दा इकट्ठा किया गया।