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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
  1. ऐसे लोगोंके लिए चरखेके समान दूसरा एक भी ऐसा उद्यम नहीं है जो सार्वजनिक बन सके और तात्कालिक फल दे सके।

खादी-सेवक तटस्थ रूपसे इन सिद्धान्तोंको ध्यानमें रखकर कार्य करे, तभी हम कह सकते हैं कि खादीका प्रयोग शास्त्रीय रूपसे किया जा रहा है। दूसरे शब्दोंमें :

  1. जिसके पास आजीविकाका दूसरा धन्धा हो और जिससे वह आजीविका प्राप्त भी कर लेता हो, प्रलोभन या पैसा देकर उससे न कतवायें।
  2. जहाँ गरीब लोग रहते हों केवल ऐसे क्षेत्रमें ही पैसे देकर सूत कतवायें और वहाँ भी केवल इतना ही दें, जितना यह कंगाल देश दे सकता है। अनुभव बताता है कि छः नम्बरके एक सेर अच्छे सूतके (चालीस रुपया वजन) चार आनासे अधिक नहीं दिये जा सकते।
  3. अन्य स्थानोंपर जहाँ लोग अपने लिये कातते हों वहाँ उन्हें शिक्षा आदिकी ही मदद दी जा सकती है। उनपर पैसा व्यय करना गरीबोंको अथवा जो जरूरतमन्द है उन्हें नुकसान पहुँचानेके समान है। वे स्वयं पैसा दें और शिक्षा लें तो अलहदा बात है अथवा बारडोली जैसे स्थानोंमें लोग कपास दें और उनमें उसका उपयोग हो, तो भी जुदा बात है।
  4. जो यज्ञके रूपमें कातें उनपर खर्च न किया जाये। यज्ञार्थ मिला हआ सुत पूरी तरहसे दानरूप रहे। जिस दानको प्राप्त करने में दानकी रकमके बराबर ही खर्च हो जाये वह दान लेना व्यर्थ है।
  5. दूसरा खर्च केवल खादी-सेवकोंको तैयार करने में अर्थात् चरखा कातने आदिकी शिक्षा देने में, खादी प्रचारमें, चरखा सुधारने में होना चाहिए। संक्षेपमें खर्च केवल वहीं किया जाना चाहिए जहाँ रंक प्रजाको, जिसके लिए चरखेकी प्रवृत्तिकी कल्पना की गई है, लाभ होनेकी सम्भावना हो।

इन नियमोंका जहाँ पालन नहीं होता हो वहाँके कताईके कामकी प्रवृत्तिमें अज्ञान है अथवा मोह है; अथवा दोनों ही है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २७–९–१९२५