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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बकरीके दूधको स्वीकार किया है। यदि मैं सार्वजनिक कार्योंमें न रहूँ तो दूधको फिरसे छोड़ दूँ और अपना प्रयोग शुरू करूँ। दुर्भाग्यसे मुझे कोई ऐसा डाक्टर, वैद्य अथवा हकीम नहीं मिला जो दूध छोड़नेके प्रयोगमें मुझे मार्ग दिखलाये। वैद्योंसे मुझे आशा थी। मेरी ऐसी धारणा थी कि उनकी विचार-श्रेणीमें आत्माके स्वास्थ्यके लिए स्थान है। लेकिन ऐसे वैद्य जिनपर आँख ठहरती, मुझे नहीं मिले। इसी कारण मुझे दूधका उपयोग करना पड़ा है। केवल शरीरको टिकाये रखनेके लिए दूध उपयोगी हो सकता है, ऐसा मैं समझता हूँ। इसीलिए अब मैं किसीसे यह नहीं कहता कि दूध छोड़ दो? पर पुस्तकमें प्रकट अपने विचारोंको में बदलना नहीं चाहता। मेरे कई मित्र अब भी दूधके त्यागका प्रयोग कर रहे हैं। उन्हें मैं ऐसा करनेसे नहीं रोकता। और न उन्हें इस सम्बन्धमें खास तौरसे प्रोत्साहित ही करता हूँ।

नमकके सम्बन्धमें दो मत है। नमक छोड़ देनेसे कुछ नुकसान होता हो ऐसा मेरा खयाल नहीं है। पर अब नमक छोड़नेके बारेमें मेरा आग्रह नहीं है। मैं जानता हूँ कि कुछ समयके लिए या सदाके लिए नमकका त्याग आध्यात्मिक दृष्टिसे बड़ा उपयोगी है। यह ध्यान रखने लायक बात है कि पानी आदिके साथ थोड़ा बहुत नमक शरीरमें जाता ही रहता है। जो कोई शरीर-आरोग्यकी दृष्टिसे दूध, नमक आदिका त्याग करे तो उसके लिए किसी अनुभवी डाक्टरसे सलाह लेकर यह काम करना उचित होगा। जो आध्यात्मिक दृष्टिसे इन वस्तुओंको छोड़ता है, उसकी त्यागवृत्तिके पूर्ण रूपसे जागृत होनेकी सम्भावना है।

४. अहिंसाका पालन करनेवालेको तो खानेके लगभग सभी पदार्थोंका त्याग करना पड़ेगा। फलाहारमें भी हिंसा है क्योंकि फल-फूलमें जीव होते हैं। किन्तु अपने-आप गिरे हुए पके फलोंको खानेमें कोई हर्ज नहीं है। परन्तु ऐसे फल मेरे समान गरीब मनुष्यके लिए बड़े महेंगे पड़ेंगे। संयोग तथा समयको सुविधानुसार हमेशा केवल गहूँका उपयोग करना उचित होगा। केवल पानीमें पकाकर गेहूँका दलिया ही खाया जाये, कोई वनस्पति या फल भी न खाया जाये तो क्या आपकी यह धारणा अथवा अनुभव है कि सुबह-शाम केवल थोड़ासा दलिया खाकर मेरे समान १९ वर्षका युवक जिसे जीवन-भर ब्रह्मचर्यका पालन करनेकी अभिलाषा है, उसीपर रह सकता है? क्या केवल दलियेसे शरीरको आवश्यक पोषण मिल सकता है?

पका हुआ फल जो कि अपने-आप जमीनपर गिरता है, उसमें भी जीव है, अतएव उसे खाना भी दोषमय गिना जा सकता है। शरीर-धारण ही दोष है और जहाँ दोष है वहाँ दुःख भी है। इसीसे तो मोक्षकी आवश्यकता है। जबर्दस्तीशरीरका नाश करनेसे हम शरीरके बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकते। शरीरके बन्धनका आत्यन्तिक नाश तो आत्यन्तिक अनिच्छा, वैराग्य। अर्थात् त्याग ही से हो सकता है। इच्छा अथवा अहंकार शरीरका मूल है। ये गये कि शरीरका होना-न-होना एक-सा ही है। पर जबतक शरीर है तबतक उसके निर्वाहके लिए जितना आहार आवश्यक है उतना आहार तो करना ही चाहिए। मनुष्य शरीरका आवश्यक आहार