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विविध प्रश्न

फलादिक वनस्पतियाँ है। कमसे-कम प्रकारके कमसे-कम मात्रामें फलादि लेकर मनुष्य अपना निर्वाह करे तो दोषमय आहार लेते हुए भी वह निर्दोष रहता है, ऐसा कहा जा सकता है। ऐसी अवस्थामें खुराक स्वादके लिए नहीं ली जाती, प्रत्युत जीवन व्यापारके, अथवा यों कहिए कि शरीर-यात्राके लिए ली जाती है। अब यह बात समझमें आ सकेगी कि अपने-आप गिरा हुआ पका फल यदि स्वादके लिए लिया जाता है तो वह दोषमय आहार हुआ; और स्वतः प्राप्त की गई वनस्पतिका पकाया हुआ आहार यदि स्वादकी इच्छासे नहीं वरन् केवल भूख मिटाने के लिए लिया जाये तो वह निर्दोष हुआ।

संयमी और निरोगी मनुष्य केवल दलियपर रह सकता है ऐसा मैं मानता हूँ। लेखकको तो मैं यह सलाह दूँगा कि वे उदासीन वृत्तिसे मिर्च आदि मसालेसे रहित सामान्य भोजन करें। यही उनके लिए काफी होगा। ब्रह्मचर्यका पालन करने के लिए मुख्य आवश्यकता रसको मारनेकी अथवा जीतने की है। छप्पनभोग खानेवालेको रस-त्यागी नहीं कहा जा सकता। पर आम लोग तो अपना सा आहार करके भी रस-त्यागी बन सकते है। अन्तम सबको सूक्ष्मताके साथ अपनी मासे प्रश्न करना चाहिए कि वह रसके लिए खाता है या केवल निर्वाहके लिए। खुराकके मामले में भी कोई सीधा रास्ता हमारे सामन नहीं है। सीधा रास्ता तो केवल अन्तरमें है। बाहर तो प्रपंच है। यह तो एक विशाल और रंग-बिरंगा वटवृक्ष है। उसमें से मनुष्यको अद्वैतकी साधना करनी है।

५. मनको खानेकी प्रबल इच्छा हो और शरीरको भी भूख लगी हो तो क्या उसे दबाकर उपवास करने से लाभ होता है?

लाभ और हानि उपवासके हेतुपर और व्यक्तिकी शक्तिपर अवलम्बित है। मनको तो कवियोंने मद्यपान किये हुए बन्दरकी उपमा दी है। मनकी इच्छाओंका पार नहीं। उनका तो प्रतिक्षण दमन करते रहना चाहिए।

६. मैं चाय नहीं पीता पर मेरे घरके सब लोग पीते हैं। मैं ही कमाता हूँ; अतएव मैं घरमें चाय लाऊँ ही नहीं तो वह बन्द हो जाये। क्या ऐसा जमा करना मेरे लिए ठीक होगा? मैं कमाता होऊँ अथवा न कमाता होऊँ, पर यदि मैं उपवास करके अपने घरवालोंको चाय पीनेसे रोकूँ तो क्या यह मेरे सम्बन्धियोंपर ही मेरा बलात्कार न होगा?

यदि किसी कुटम्बका मुखिया अथवा कमानेवाला स्वयं चाय न पीनके कारण दूसरोंको चाय नहीं पिलाता तो वह बलात्कार करता है। उसे दूसरोंको धैर्यके साथ समझाना चाहिए। पर जबतक वे न समझें तबतक उसे उनके लिए चाय ला देनी चाहिए, ऐसा मेरा मत है। दूसरे यदि न मानें तो उसके लिए उपवास करना तो धमकी देना है; और धमकी देना हिंसा है।

७. में मानता हूँ कि शारीरिक दण्ड देनसे कोई नहीं सुधरता, पर फिर भी मैं अपने वर्गके विद्यार्थियोंको सजा देता हूँ। मेरा यह कार्य हिंसा है या नहीं? मैं यह जानता हूँ कि यदि मैं किसी ऊधमी या बुद्ध लड़केको स्वयं