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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
मन सजा न देकर हेडमास्टरके पास भेजूँ तो वे भी उसे शारीरिक दण्ड ही देंगे। फिर भी यदि मैं उस लड़के को वहाँ भेजता हूँ तो यह हिंसा करना हुआ या नहीं?

विद्यार्थीको स्वयं सजा देने और प्रधानाध्यापकके पास सजाके लिए भेजने, इन दोनों ही में हिंसा है। यद्यपि यह प्रश्न पूछा नहीं गया है कि शिक्षक किसी बालकको सजा दे सकता है या नहीं, तथापि वह मूल प्रश्नके अन्तर्गत आ जाता है। मैं ऐसे प्रसंगकी कल्पना कर सकता हूँ जब कोई बालक जानता हआ भी दोष करे और उसे दण्ड देने का धर्म उपस्थित हो जाये। प्रत्येक शिक्षकको अपने कर्त्तव्यका विचार करनेकी आवश्यकता है। पर सामान्य नियम तो यही है कि शिक्षक कभी विद्यार्थीको शारीरिक दण्ड न दे। यह अधिकार माता-पिताको प्राप्त भले ही हो। न्याययुक्त दण्ड वही कहा जा सकता है जिसे विद्यार्थी स्वयं स्वीकार कर ले। ऐसे प्रसंग बारबार नहीं आते। यदि आयें और दण्ड देना उचित है या नहीं इसमें शंका हो तो दण्ड न दिया जाये। क्रोधमें तो दण्ड कभी दिया ही नहीं जाना चाहिए।

८. मैं जानता हूँ कि क्रोध शरीरको और चारित्र्यको नुकसान पहुँचाता है। अतएव में क्रोधित न होकर भी विद्यार्थीपर क्रोधित होने की मुद्रा धारण करूँ, दण्ड देनेका विचार न होनेपर भी दण्ड देनेका भय बतलाऊँ तो मेरा यह आचरण असत्य गिना जायेगा या नहीं?

लोगोंको प्रायः ऐसा करते देखा जाता है। मारनका भाव दिखाना हर प्रकारसे दोषयुक्त है।

९. सन्तति-नियमनके लिए ब्रह्मचर्य ही एक मात्र उपाय है, यह मुझे मान्य है। मेरा हृदय इसे स्वीकार करता है, पर साथ ही बुद्धि बलवा खड़ा करती है। वह कहती है कि जिस प्रकार प्रत्येक इन्द्रियका उपयोग करने में कोई नुकसान नहीं हो सकता बल्कि उपयोग न करनेसे हानि होती है उसी प्रकार इस इन्द्रियका उपयोग न करनेसे भी कहीं कुछ नुकसान तो न होगा? इसी प्रकार सन्तति-नियमन समितिके प्रधानने भी 'क्रॉनिकल' में आपके नामपर एक पत्र लिखा था। अतएव इस दलीलका आप खुलासा करें।

यह सिद्धान्त ही नहीं है कि इन्द्रिय-मात्रका उपयोग आवश्यक है। जो पुरुष ज्ञानपूर्वक वाचाके उपयोगका त्याग करता है वह संसारपर उपकार करता है। इन्द्रियउपयोग धर्म नहीं है। इन्द्रिय-दमन धर्म है। ज्ञान और इच्छापूर्वक किये गये इन्द्रियदमनसे आत्माको लाभ पहुँचता है, हानि नहीं। विषयेन्द्रियका उपयोग केवल सन्ततिकी उत्पत्तिके लिए ही स्वीकार किया गया है। पर जो सन्ततिका मोह छोड़ देता है उसकी शास्त्र भी वन्दना करते हैं। इस युगमें विकारोंकी महिमा इतनी बढ़ गई है कि अधर्म ही को लोग धर्म मानने लग गये है। विकारोंकी वृद्धि अथवा तृप्तिमें ही जगतका कल्याण है ऐसी कल्पना करना जबरदस्त भूल है, ऐसा मेरा विश्वास है। यही शास्त्र भी कहते हैं और आत्मदर्शियोंका स्वच्छ अनुभव भी यही है। हिन्दुस्तान