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अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी

मर्जीपर है या वह चाहे तो उसको अस्वीकार करके उसकी भर्त्सना करे; अथवा इस भावसे कि जो हो चुका सो हो चुका, उसके निर्णयको स्वीकार करते हुए उसके इस व्यवहारकी भर्त्सना करे। एक-दो सदस्योंने कहा कि भर्त्सना करना तो असम्भव है; क्योंकि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके इस प्रस्तावको तुरन्त ही कार्यरूप देना है और इसलिए जो लोग कांग्रेसमें आयेंगे, स्वभावतः नये मताधिकारके अनुसार सदस्य बनकर आयेंगे। इसलिए जिन लोगोंको उस मताधिकारका लाभ मिलेगा उनसे लाभ पहुँचानेवाली संस्थाके कार्यकी भर्त्सना करनेकी आशा नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसा होना कोई जरूरी नहीं है। यदि केवल संवैधानिक आधारपर ही कमेटीका यह परिवर्तन नापसन्द किया जाये तो जिन लोगोंको इससे लाभ पहुँचा है, वे भी कमेटीके अवैध कार्यकी भर्त्सना कर सकते हैं और उनका यह व्यवहार बिलकुल उचित होगा। वे किसी भी हालतमें परिवर्तनके औचित्यको स्वीकार करके भी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके परिवर्तन करनेके अधिकारको आलोचना कर सकते हैं।

इस परिवर्तनके सार तत्त्वपर विचार करें तो हम देखते हैं कि कोई भारी परिवर्तन नहीं किया गया है। इससे किसी भी वर्गके हितको हानि नहीं पहुँची है। किसी भी व्यक्तिका मताधिकार नहीं छीना गया है। ऐसा भी नहीं है कि इसके कारण कोई भी दल परिवर्तनसे पहलेकी अपनी अवस्थासे बुरी अवस्थामें पहुँच गया हो योगियोंको कोई शिकायत नहीं हो सकती; क्योंकि राष्ट्र-नीतिके तौरपर असहयोग स्थगित हो चुका है। रचनात्मक कार्यक्रमपर इस परिवर्तनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। कताई और खादी अब भी राष्ट्रीय कार्यक्रमके अंग बने हुए हैं।

कौंसिल-कार्यक्रमको जिसे अबतक स्वराज्यदल कांग्रेसके नामपर चला रहा था, अब कांग्रेस स्वयं स्वराज्यदलके जरिये चलायेगी। इसे ऐसा अन्तर कहा जा सकता है, जिससे स्थितिमें कोई फर्क नहीं पड़ता। जो लोग राजनीतिक कार्यक्रमके मुकाबले चरखेको प्राथमिकता देते हैं उनका, और जो विशुद्ध राजनीतिक कार्यक्रममें कोई विश्वास नहीं रखते हैं और सिर्फ चरखमें ही विश्वास रखते हैं, उनका भी कोई नुकसान नहीं हुआ है; क्योंकि चरखा-कार्यक्रमको आगे बढ़ानेके लिए उनके पास एक पृथक् संगठन तो है ही, और फिर हाथ कताई अब भी मताधिकारके एक वैकल्पिक भागकी तरह मौजूद है। कांग्रेसके समारोहों तथा अन्य सार्वजनिक अवसरोंपर खादी पहनना अब भी लाजिमी बना हुआ है। इसके अतिरिक्त कांग्रेसके बाहरके दलोंपर भी इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। बेलगाँवके प्रस्तावके[१] अन्तर्गत जहाँ अन्य बाहरी दलोंको स्वराज्यवादी और अपरिवर्तनवादी, कांग्रेसके दोनों दलोंसे बातचीत करना और उन्हें अपने मतका कायल करना था, वहाँ अब उन्हें सिर्फ स्वराज्यवादियोंको ही अपने मतका बनाना या उन्हीसे मशविरा करना है। अतएव यह परिवर्तन हर प्रकारसे सदस्यता प्राप्त करने के अधिकारकी सीमाको बढ़ाता है। इसके कारण सब दलोंके एक सूत्रमें बँधने के मार्गकी कठिनाई पहलेसे कम हो जाती है। कोई भी कांग्रेस कमेटी ऐसे किसी परिवर्तनको कभी नापसन्द नहीं कर सकती जिससे लोगोंकी स्वतन्त्रतामें वृद्धि होती

  1. देखिए खण्ड २५, पृष्ठ ५३७–३९।