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१५३. सिख धर्म

सरदार मंगलसिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी बैठकके सिलसिलेमें पटना आये थे, उस समय उन्होंने मेरा ध्यान गत ९ अप्रैलके 'यंग इंडिया' में प्रकाशित "एक क्रान्तिकारीके प्रश्न" शीर्षक लेखकी[१] ओर आकर्षित किया था। उन्होंने बताया कि उस लेखसे बहुत-से सिख भाइयोंके मनको चोट लगी है, क्योंकि वे मानते है कि उसमें मैने कृष्णकी तो प्रशंसा की है, लेकिन गुरु गोविन्दसिंहको दिग्भ्रमित देशभक्त कहा है। सरदारजीने मुझसे कहा कि अब मैं जल्दीसे-जल्दी इस बातका स्पष्टीकरण कर दूँ कि लेखके जिन अंशोंकी ओर उन्होंने मेरा ध्यान आकर्षित किया था, उनमें दरअसल मैं कहना क्या चाहता था। सतर्क पाठकगण देखेंगे कि मैने भाषाके प्रयोगमें बहुत सावधानीसे काम लिया है। मैंने कोई भी बात निश्चयात्मक ढंगसे नहीं कही है। मैंने जो-कुछ कहा है, सो इतना ही कहा है कि गुरु गोविन्दसिंह सहित उल्लिखित वीर-पुरुषोंके विषयमें जितनी बातें कही जाती हैं उन सबको अगर सच माना जाये तो, और यदि मैं उनका समकालीन होता तो, मैं उनमें से प्रत्येकको देशभक्त कहता। लेकिन, अगले ही वाक्यमें मैंने यह भी कह दिया है कि मुझे उनका काजी नहीं बनना है। दूसरे इतिहास में वीरोंके कारनामोंके जैसे ब्यौरे दिये गये हैं मैं उन्हें सही नहीं मानता। सिख गुरुओंके विषयमें मेरी मान्यता तो यह है कि वे लोग बड़े ही धर्मिष्ठ संत और सुधारक थे; वे सबके सब हिन्दू थे और गुरु गोविन्दसिंह हिन्दू-धर्मके सबसे बड़े त्राताओंमें से थे। मैं यह भी मानता हूँ कि उन्होंने उसकी रक्षाके लिए ही तलवार उठाई। लेकिन, उनके कार्योंके औचित्यअनौचित्यके विषयमें मैं कुछ नहीं कह सकता, और जहाँतक तलवारका सहारा लेनेका सम्बन्ध है, मैं उन्हें अपना आदर्श भी नहीं मान सकता। मैं नहीं जानता कि अगर मैं उनके युगमें रहा होता और मेरे विचार ऐसे ही होते, जैसे आज है, तब मैं क्या करता। ऐसी काल्पनिक बातोंपर विचार करना मैं समयको व्यर्थ गँवाना मानता हूँ। मैं सिख-धर्मको हिन्दू-धर्मसे अलग नहीं मानता। मैं उसे हिन्दू-धर्मका ही एक हिस्सा और बैष्णव धर्मकी ही तरह हिन्दू-धर्ममें एक सुधारका प्रयास-मात्र मानता हूँ। यरवदा जेलमें मुझे सिखोंके सम्बन्धमें जितना भी साहित्य मिला, मैं उस सबका पारायण कर गया। 'ग्रन्थ साहिब' के भी कुछ अंश पढ़े। उसका स्वर बड़ा ही आध्यात्मिक और नैतिक है और वह मनुष्यको ऊपर उठानेवाला है। हमारी 'आश्रम भजनावली' में गुरु नानकके भी कुछ भजन है। किन्तु, साथ ही अगर सिख लोग सिख-धर्मको हिन्द्र धर्मसे बिलकुल अलग मानते हैं तो मुझे इसपर भी उनसे कोई बहस नहीं करनी है। जब मेरी पंजाब-यात्राके दौरान कुछ सिख भाइयोंने मुझसे कहा कि मेरा सिख-धर्मको हिन्दू-धर्मका अंग कहना उनको बुरा लगता है, तबसे मैंने ऐसा कहना भी छोड़ : दिया। किन्तु, मुझे आशा है कि जब मुझसे सिख-धर्मके विषयमें अपने विचार व्यक्त

  1. देखिए खण्ड २६, पृष्ठ ४७८–८४।

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