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अखिल भारतीय चरखा संघ

स्वतन्त्र अस्तित्व होगा, इसका एक-मात्र उद्देश्य चरखे और खादीका प्रचार होगा, और इसका संचालन इसके अपने स्वतन्त्र विधानके अनुसार होगा—यहाँतक कि इसने अपनी सदस्यताके नियम भी अलग रखे है, और जैसा कि मैं कह चुका हूँ, यह गैर-कांग्रेसी लोगोंको भी अपने सदस्य बना सकता है और किसी भी कांग्रेसीके लिए—कताई करनेवाले कांग्रेसीके लिए भी इसका सदस्य होना अनिवार्य नहीं है।

पहले मैने इसका विधान जितना कठोर बनानेकी बात सोची थी, उतना कठोर यह नहीं है। मैने जो मसविदा प्रचारित किया था, उसमें प्रथम श्रेणीकी सदस्यता प्राप्त करनेके लिए प्रति मास दो हजार गज सत कातना जरूरी बताया गया था। साथ ही ऐसे सदस्योंसे निम्न आशयकी एक घोषणापर हस्ताक्षर करानेका भी खयाल था :

"मेरा यह पक्का विश्वास है कि भारतके जनसाधारणकी आर्थिक मुक्ति तभी सम्भव है, जब इस देशके घर-घरमें चरखे और उससे उत्पन्न खादीको अपनाया जाये। इसलिए जब मैं बीमारी या किसी अप्रत्याशित घटनाके कारण कातनेमें असमर्थ रहने के दिनोंके अलावा हर रोज कमसे-कम आधे घंटेतक चरखा चलाऊँगा और बराबर हाथ-कते सूतसे तैयार हाथ बुनी खादी ही पहनूंगा, और अगर मेरे विश्वासमें कभी कोई परिवर्तन होगा अथवा मैं कातना या खादी पहनना छोड़ दूँगा तो मैं इस संघकी सदस्यतासे त्यागपत्र दे दूँगा।"

किन्तु, जो लोग प्रथम श्रेणीके सदस्य बनना चाहते थे पर जिन्हें प्रति मास दो हजार गज सूत कातना कठिन लगता था, उनकी ओरसे इसका जोरदार विरोध किया गया और परिणामतः दो हजार गजके बदले एक हजार गज सूत कातनेका ही नियम रखा गया। खुद उस घोषणापत्रपर हस्ताक्षर करानेका खयाल छोड दिया गया; क्योंकि ऐसा लगा कि कुछ लोगोंको इस सम्बन्धमें गम्भीर प्रतिज्ञा लेनेका विचार ही बहुत खल रहा है, हालांकि मैं अब भी ऐसा मानता हूँ कि उनका यह रवैया बिलकुल गलत था। खुद मेरा और बहुत-से अन्य लोगोंका भी मत यह है कि वचन देना या प्रतिज्ञा करना तो दृढ़से-दृढ़ व्यक्तियोंके लिए भी आवश्यक है। वचन बिलकुल सुनिश्चित चीज है, जिसमें बिन्दु-विसर्गका भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता—इसकी स्थिति ठीक समकोण-जैसी है, जो ९० अंशका ही हो सकता है। अगर समकोणमें तनिक भी कम-ज्यादा हो जाये तो जिस बड़े उद्देश्यके लिए उसका उपयोग किया जाता है, उसके लिए वह सचमुच निरर्थक हो जाता है। स्वेच्छासे दिया गया वचन साहुलकी उस डोरीके समान है जो मनुष्यको बिलकुल सही मार्ग पर रखती है, और उसके जरा भी इधर-उधर होने पर उसे तुरन्त सावधान कर देती है। सभीपर लागू हो सकनेवाले आम नियमसे व्यक्तिगत तौरपर लिये गये व्रतका उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। इसलिए तमाम बड़ी और सुसंचालित संस्थाओंमें घोषणापत्रोंपर हस्ताक्षर लेनेकी रीति प्रचलित है। वाइसरायको अपने पदकी जिम्मेदारियाँ ईमानदारीके साथ निभानेकी शपथ लेनी पड़ती है। दुनिया भर में विधान मण्डलोंके सदस्योंको भी ऐसा ही करना पड़ता है, और मेरे विचारसे ऐसा करना बिलकुल ठीक भी है। किसी सेनामें भरती होनेवाले सिपाहीको भी ऐसा ही करना पड़ता है। इसके