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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अतिरिक्त लिखित वचन मनुष्यको बराबर इस बातका स्मरण दिलाता रहता है कि उसने क्या वचन दिया है। स्मृति तो एक बड़ी कमजोर और अनित्य चीज है। लिखित शब्द बराबर मौजूद रहते हैं। किन्तु, घोषणापत्र वाली धाराको कायम रखनेके विपक्षमें किसी हदतक काफी प्रबल मत था, इसलिए मैंने सोचा कि इसे छोड़ ही दूँ, क्योंकि इस बातसे सभी सहमत थे कि भले ही वह प्रतिज्ञा वास्तवमें न ली जाये, फिर भी उस प्रतिज्ञापत्रमें जिस विश्वासकी घोषणा की गई है, वैसा विश्वास हरएक सदस्यका है, और होना चाहिए; और फिर सबको यह भी स्वीकार था कि हर सदस्यको, सिवाय ऐसी स्थितिके जब किसी अनिवार्य कारणसे वह लाचार न हो जाये, प्रतिदिन कमसेकम आधे घंटेतक चरखा चलाना चाहिए। संघकी परिषद्के सदस्यों द्वारा ली जानेवाली प्रतिज्ञामें एक अतिरिक्त धारा भी थी। वह इस प्रकार थी :

मैं वचन देता हूँ कि इस संघकी परिषद्के सदस्यके रूपमें मैं अपनी जिम्मेदारियाँ ईमानदारीके साथ निभाऊँगा, और मैं जो भी व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक काम अपने हाथमें लूँगा उन सबके मुकाबले इस संघके उद्देश्योंको सफल बनानेके प्रयत्नको प्राथमिकता दूँगा।

इसपर ऐसा कहा गया कि प्रतिज्ञापत्रपर हस्ताक्षर तो नहीं करवाना चाहिए, किन्तु जिस संघकी परिषद्के सभी सदस्य अनिवार्यतः इस काममें अपना पूरा समय देनेवाले ही हों, उसमें यह बात तो मानकर ही चलना चाहिए कि सदस्यगण अपनी जिम्मेदारियोंका निर्वाह ईमानदारीके साथ करेंगे। सच तो यह है कि कौंसिलकी का मतलब काम-ही-काम है : अधिकार नहीं। और जहाँ सवाल सिर्फ सेवा करनेका हो और एकमात्र पुरस्कार अन्तरात्माकी तुष्टि ही हो, वहाँ तो उस सेवा-यज्ञमें सभी शामिल हो सकते हैं—चाहे वे किसी पदपर हों अथवा न हों। इसलिए मुझे आशा है कि कोई इसमें किसी भी व्यक्तिके शामिल न किये जानेका बुरा नहीं मानेगा और न उसका कोई गलत अर्थ ही निकालेगा। बल्कि मैं तो यह आशा कर रहा हूँ कि जिन खादी कार्यकर्त्ताओंके पास कोई भी नई या महत्त्वपूर्ण योजना हो, अथवा जिनमें भी सेवाकी विशेष वृत्ति हो वे सब—चाहे स्त्री हो या पुरुष—संघको अपनी योजना या सेवावृत्तिका लाभ देने में नहीं चूकेंगे। अगर इस उपक्रमको सफल होना है तो हममें से अदनासे-अदना व्यक्तिको भी इसमें हर तरह हाथ बँटाना होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १–१०–१९२५