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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
है कि हमारे जैसे अनियमित जीवन बिताने वालोंको चरखा अवश्य ही नियमित बनायेगा और हमारे दायित्वहीन स्वभावमें जिम्मेवारीका भाव उत्पन्न करेगा।

ये अकेले ही ऐसे व्यक्ति नहीं है जिन्हें यह लगा है कि चरखा कातनेवाले में अनुशासनकी भावना भरता है। चरखा-प्रचारके काममें लगा हुआ ऐसा कौन होगा जो इस बातकी पुष्टि नहीं करेगा कि यदि स्त्रियोंसे चरखा चलवाना हो तो पुरुषोंको न केवल उदाहरण पेश करना चाहिए बल्कि उन्हें कताईकी कलाकी बारीकी भी सिखानी चाहिए? चरखेमें अबतक जो-कुछ थोड़े परन्तु महत्त्वपूर्ण सुधार हुए हैं, उनका श्रेय उन लगनशील और शिक्षित पुरुषोंको ही है जो कि इस काममें निःस्वार्थभावसे नियमपूर्वक लगे हुए हैं।

गोरक्षा परिशिष्टांक

पाठकोंको 'यंग इंडिया' के इस अंकके साथ एक परिशिष्टांक प्राप्त होगा। इसे मैंने नहीं, बल्कि घाटकोपर मानव-दया संघने छापा है। इसे छापने के लिए संघने मेरी अनुमति भी नहीं ली, बल्कि यह मानकर छाप दिया कि मैं इसकी अनुमति दे ही दूँगा। इस पुस्तिकाको प्रकाशित करने में संघने काफी पैसा खर्च किया है। यदि छपवानेसे पहले मेरी अनुमति मांगी जाती तो मैं इस पुस्तिकाका वितरण करनेसे इनकार कर देता, क्योंकि इसमें संघका लेखा-जोखा और विवरण भी है। ऐसी पुस्तिकाएँ कितनी ही बढ़िया क्यों न हों, मैं 'यंग इंडिया' के साथ उनका वितरण नहीं कर सकता। ऐसा करनेके लिए तो मुझे पत्रका रूप ही बदलना पड़ेगा। परन्तु गो-सेवकोंके लिए इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं। ऐसा लगता है कि उत्साहके अतिरेकके कारण ही हिसाब-किताब और चन्देकी अपीलों आदिके बीचमें ऐसी सामग्री देनेकी हो गई है। मैं जानता है कि इस पुस्तिकाके प्रकाशक ऐसा मानकर चलें कि इसमें मनुष्येतर प्राणियों, मनुष्यसे निम्न कोटिके जीवोंकी रक्षाके लिए जो निवेदन किया गया है, उसे पाठकोंतक पहुँचानेके उद्देश्यसे मैं इसके वितरणकी अनुमति दे ही दूँगा। जिन भाईने यह लेख लिखा है, उनके ज्ञान और मानव-दयाकी भावनाका मैं बहुत आदर करता हूँ। मेरी तरह वे भी आदर्शवादी हैं। लेकिन यदि मुझे उनके लेखका संशोधन करनेका अवसर मिलता तो उनके तर्क ठीक लगते हुए भी मैं उसकी भाषा और संयत कर देता। मैं अपने आपको एक व्यावहारिक सुधारक मानता हूँ और अपना ध्यान उन्हीं चीजोंपर लगाता हूँ जिनको करपाना मनुष्यके लिये संभव है। इसलिए मैं इस पुस्तिकाको, इसमें जो महत्त्वपूर्ण तथ्य और आँकड़े दिये गये हैं, उन्हींतक सीमित रखता—बम्बईके नगरनिगम कमिश्नरने गलतीसे सुन्दर कहे जानेवाले उस नगरमें लोगोंकी अपराधपूर्ण उपेक्षाके कारण हो रहे पशु-जीवनके ह्रासके सम्बन्धमें जो रिपोर्ट दी है और बम्बईके अस्तबलोंकी भयंकर दशाका वर्णन करते हए डा॰ मैन रिपोर्टका जो दिल दहला देनेवाला अंश दिया गया है—और उसके अतिरिक्त सा सामग्री छाँट देता। मैं पाठकोंसे अनुरोध करूँगा कि वे 'यंग इंडिया' के इस तथाकथित परिशिष्टमें इन बातोंको पढ़ें। पाठक घाटकोपर मानव-दया संघके उद्यमी मन्त्रीके अतिउत्साहको दरगुजर करके कमसे-कम दूसरा पृष्ठ और ६ से १० पृष्ठ तो पढ़ ही लें।