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भाषण : मारवाड़ी अग्रवाल सभा, भागलपुरमें

कुछ-न-कुछ तो मिलेगा ही। वकालत करना मैने कबका छोड़ दिया है, किन्तु अब भी मेरा कुछ महत्व तो है ही। इसीलिए मैं जहाँ-कहीं जाता हूँ, लोगोंसे कुछ काम निकाल लेता हूँ। भागलपुरके लोगोंसे मुझे दोनों चीजोंकी आशा है—में आपको काममें भी लगाऊँगा और अगर आप देनेको तैयार हों तो जितना सम्भव होगा उतना धन भी आपसे लूंगा। उन्होंने आगे कहा :

आपने जो मानपत्र दिया है, उसके बारेमें मैं क्या कहूँ? यदि कहूँ कि उसके लिए आपका आभारी हूँ तो महज शिष्टाचार होगा। जो मुझे मानपत्र भेंट करते हैं, उनसे मैं यही आशा करता हूँ कि वे मानपत्रमें व्यक्त की गई भावनाओं और आदर्शोंके अनुरूप कार्य और आचरण करेंगे। मुझे उससे सचमुच प्रसन्नता होगी। जीवनमें एक ऐसी अवस्था आती है जब आदमी अपनी प्रशंसा सुन-सुनकर तंग आ जाता है और मैं इसका एक जीता-जागता उदाहरण हूँ। मैं यह तो समझ सकता हूँ कि अपनी प्रशंसा सुनना एक हदतक अच्छा लग सकता है, पर हमेशा अच्छा लगे ऐसा मैं नहीं मानता। पिछले चालीस वर्षोंसे मेरा यही अनुभव है कि मुझे अपनी प्रशंसा सुनकर कभी प्रसन्नता नहीं हुई है। लेकिन जिन्हें अपनी बड़ाई अच्छी लगती हो, उनके लिए भी एक समय ऐसा आ जाता है, जब वे उससे ऊब जाते हैं। सिर्फ अपनी प्रशंसा सुननेके लिए मैं अपना समय गंवानेको तैयार नहीं हूँ, इसलिए आपने मानपत्रमें जो-कुछ कहा है, तदनुसार आपको कुछ करके दिखाना पड़ेगा।

अध्यक्ष महोदयने मुझसे सामाजिक और धार्मिक मसलोंपर कुछ कहनेका अनुरोध किया है। इसके माने यह हो सकते हैं कि मैं इस समय किसी राजनीतिक विषयकी चर्चा न करूँ। कुछ लोगोंका कहना है कि में राजनीतिसे अलग हो गया है; और मेरा दिमाग फिर गया है। फिर भी किसीको यह कहनेका साहस नहीं हुआ कि मेरे मनमें किसी चीजका डर समा गया है। यहाँ राजनीति या सविनय अवज्ञापर कुछ कहना मेरे लिए जरूरी नहीं है। सविनय अवज्ञाका सामाजिक पहल, सचमुच बहुत महत्त्वपूर्ण है। कई स्थानोंपर तो उसने बहुत गम्भीर रूप धारण कर लिया है। मैं गुजरातकी एक घटनाका उल्लेख करता है। वहीं एक स्थानपर एक साधु पुरुष रहते हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग दिया है और जो धार्मिक दृष्टिसे हिन्दू जातिकी सेवा करना चाहते हैं। वे अपने आपको कट्टर हिन्दू मानते हैं और पाश्चात्य सभ्यता या सुधारोंमें उनका विश्वास नहीं है। बहुत ध्यानपूर्वक देखनेपर भी आपको उनमें पाश्चात्य सभ्यताकी कोई झलक न दिखाई देगी। पर वे दलित जातियोंकी सेवा करते हैं। वे अस्पृश्यताको एक ऐसा महापाप मानते हैं, जिससे हिन्दू जातिको बहुत हानि हो सकती है। इसीलिए वे इसका प्रायश्चित्त करना चाहते है और उनका विचार है कि अपने अस्पृश्य भाइयोंकी सेवाके द्वारा कुछ हदतक वे ऐसा कर सकते हैं। ऐसे विचार होनेपर भी वे उनके साथ रोटी-बेटीका व्यवहार नहीं चाहते। यदि किसी अछूतको साँप काट खाये तो वे उसके घावसे जहर चूस लेंगे। उन्हें अपनी जानकी भी चिन्ता नहीं होगी। वे नहीं मानते कि किसी अस्पृश्यका स्पर्श करनेसे उनके धर्मको तनिक भी आँच आती है। तुलसीदासने जिस प्रेम और दया-धर्मकी शिक्षा दी है, जिसके पालन

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