द्वारा मारा जाना ठीक ही माना जायेगा। अहिंसा कोई जड़ सिद्धान्त नहीं है। वह हमारी अपनी आत्मासे सम्बन्धित एक निजी मामला है। इसके अतिरिक्त सारी दुनियाके विपरीत सम्पत्तिका स्वत्व अहिंसाधर्मके अनुकूल नहीं है। जो व्यक्ति अन्तिम सीमातक अहिंसाके सिद्धान्तका अनुसरण करना चाहता है, उसके लिए तो संसारमें कोई ऐसी वस्तु है ही नहीं, जिसे वह अपनी कह सके। उसे अपनेको सम्पूर्ण के साथ एक कर देना होगा, और इस सम्पूर्णमें साँप, बिच्छू, शेर, भेड़िये आदि सभी शामिल हैं। ऐसे अहिंसक लोगोंके उदाहरण मौजूद हैं जिनकी अहिंसाको जंगली जानवरोंने भी स्वीकार किया है। हम सबको उस स्थितितक पहुँचनेकी कोशिश करनी होगी।
आपके दूसरे प्रश्नका भी यही उत्तर है। कीटाणुओं और कीड़ोंको मारना हिंसा है, किन्तु जिस प्रकार हमारे शाक-सब्जी खानेमें भी हिंसा है (क्योंकि इनमें भी प्राण है), फिर भी हम उसे अपरिहार्य हिंसा मानते हैं, उसी प्रकार कीटाणुओंके जीवनके सम्बन्धमें भी हमें वही भाव रखना होगा। आप देखेंगे कि आवश्यकताके इस सिद्धान्तका यों तो इतना अधिक विस्तार किया जा सकता है कि मनुष्यको खा जाना भी उचित ठहराया जा सकता है। जो आदमी अहिंसामें विश्वास रखता है वह सावधानीके साथ ऐसे सभी कामोंसे दूर रहता है जिससे किसीको चोट पहुँचती है। मेरा यह तर्क केवल उन लोगोंके लिए है, जो अहिंसामें विश्वास करते है। मैं जिसे आवश्यकता मानता हूँ वह सार्वभौम आवश्यकता है, इसलिए यह उचित नहीं है कि अहिंसाका पालन एक खास सीमासे आगे किया जाये। इसलिए शास्त्र या रूढ़ि केवल कुछ मामलोंमें ही हिंसाकी अनुमति देते हैं। इसीलिए नियमसंगत होनेके साथ-साथ यह प्रत्येकके लिए अनिवार्य भी है कि वह इस अनुमति और ढीलका जहाँतक सम्भव हो, कमसे-कम उपयोग करे। सीमाका उल्लंघन नियम विरुद्ध है।[१]
हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी
अंग्रेजी पत्र (एस॰ एन॰ १०५९५) की फोटो-नकलसे
- ↑ पत्रमें गांधीजीने अपने हाथसे कुछ संशोधन किए हैं।