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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यही कहना है कि चौदह वर्ष तो क्या, मैं सोलह वर्षकी लड़कीको भी विवाहके योग्य नहीं मानता।[१]

मेरे संरक्षणमें भी कुछ लड़कियाँ है, और कुछ लड़कियोंके पिता मेरी बात सुनते भी है। उन सबको मैंने इस बातपर राजी कर लिया है कि वे कम उम्रमें अपनी लड़कियोंके विवाहके किसी प्रस्तावपर विचार नहीं करेंगे; बल्कि उसकी कोई चर्चा भी नहीं करेंगे। यह तो हमारा ही कर्तव्य है कि जो लड़कियाँ हमारे अभिभावकत्वमें हैं, उन्हें अपने विचार पवित्र रखने की शिक्षा दें और विवाह आदिकी चर्चा करके उनके मनमें विकार न उत्पन्न करें। मैं चाहता हूँ कि इन कन्याओंकी माताएँ सीताके समान बनें। यह कैसे हो सकता है? सीता अग्नि-परीक्षामें पूरी उतरी थीं। वे आगमें कूद गई, पर उनका बाल भी बाँका न हुआ। काश, ऐसी महान् नारियाँ फिरसे भारतमें जन्म लें। पर यदि हम बचपनसे ही इन कन्याओंके मन। बातें भरते रहे तो उनसे सीताके समान बननेकी आशा कैसे कर सकते हैं? जो इस सुधारके महत्त्वको समझ सके होंगे वे इसके लिए सभी प्रकारका बलिदान करनेको तैयार रहेंगे। पश्चिमी देशोंमें भी, जिनकी त्यागके लिए कोई ख्याति नहीं है और जहाँ आनन्दोपभोग ही सब-कुछ है, आज ऐसी महिलाएँ विद्यमान हैं, जिनके हृदय शुद्ध और निष्कलुष है। एक ऐसी ही लड़की[२] दक्षिण आफ्रिकामें मेरे साथ थी। वह हजारों लोगोंकी सेवा करती थी और जब मैं और मेरे सहयोगी जेल भेज दिये गये थे, तब उसने ट्रान्सवालके सत्याग्रहका तमाम भार अपने सिर ले लिया था। उस समय वह हजारों लोगोंके सम्पर्क में आई, पर कोई भी उसपर कुदष्टि न उठा सका।

मेरे साथ वहाँ एक भारतीय महिला भी थीं, पर वे इस कामको नहीं कर सकीं। वे जेल तो गई पर अगर मैं उनके सारे गहने न ले लेता तो शायद वे इतना भी न कर पातीं। सभीको जेल जानेका अधिकार तो होना चाहिए, लेकिन यह अधिकार सिर्फ उसीको शोभा दे सकता है, जिसने अपने सब गहने त्याग दिये हों।

अब मैं अपने प्रिय विषयके सम्बन्धमें आपसे बात करूँगा। अपने मानपत्रमें आपने खादीका उल्लेख किया है। इस विषयमें मैंने बहुत विचार किया है और मैं जिस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ, उसपर काफी चिन्तनके बाद ही पहुँचा हूँ और तभी मैंने इस कामको अपने हाथ में लिया है। मैं जानता हूँ कि मैं जो कुछ चाहता हूँ, वह सब इस जीवनमें पूरा नहीं हो सकेगा।

इसके बाद गांधीजीने गोरक्षाको चर्चा की। उन्होंने कहा :

यदि आप गायोंकी रक्षा करना चाहते हैं तो इस समस्याको उसी दृष्टिसे देखिए जिस दृष्टिसे मैं देखता हूँ। हम मुसलमानों और अंग्रेजोंसे लड़कर या उनसे अनुनय-विनय करके उनकी रक्षा नहीं कर सकते। अपने मनमें संकल्प किये बिना दूसरोंसे अनुनयविनय करनेसे कुछ लाभ नहीं होगा। आज मैं एक वक्तव्य तैयार कर रहा हूँ जिसमें यह दिखाया जायेगा कि खुद हम कितने पशुओं के जीवनके नाशके लिए जिम्मेदार हैं।

 
  1. देखिए "सहमतिकी वध", २७–८–१९२५।
  2. सोंजा श्लेसिन; देखिए खण्ड ११, पृष्ठ ११।