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भाषण : मारवाड़ी अग्रवाल सभा, भागलपुरमें

ग्वाले सब हिन्दू है, हमारे अपने आदमी है। पर वही अपने पशु कसाइयोंके हाथ बेचते है। मारवाड़ी भी हमारे अपने हैं और वे ही अपनी गायें और बैल दूसरे स्थानोंको भेजते हैं। इनमें से कुछ पशुओंको तो बम्बई और कलकत्ताके कसाईखानों में काट दिया जाता है और कुछको आस्ट्रेलिया भेज दिया जाता है। वहाँ उनका माँस डिब्बोंमें बन्द करके फिर इस देशमें भेजा जाता है। यदि दूध और चमड़ेकी जरूरत पूरी करनेकी जिम्मेदारी हम अपने ऊपर ले लें, तो हम इसे रोक सकते हैं। इस स्थितिके लिए हम ही उतरदायी हैं। रियासतोंमें चमार पशुओंको किस प्रकार जहर दे देते हैं, इसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे मालूम हुआ है कि एक रियासतमें तो उन्हें हजारके हिसाबसे मृत पशुओंको हटाने-वगैरहका ठेका दिया जाता है। यह अनुचित है। हजारके स्थानपर यदि प्रति पेशेके हिसाबसे पैसे दिये जाये तो ज्यादा अच्छा होगा। मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता कि चमार मरे हुए जानवरोंका मांस खायें। जब मैं उनसे ऐसा न करनेको कहता हूँ तो वे उत्तर देते हैं कि यह मांस बड़ा स्वादिष्ट होता है और जबतक वे इस पेशे में हैं, उनके लिए उसे छोड़ना सम्भव नहीं है। उनका कहना है कि बालकके सामने मिठाई रखकर उसे न खानेका आदेश देना ठीक नहीं है। वे कहते है कि यह पेशा छुड़ानेके लिए उन्हें बनाईके जैसा कोई दूसरा काम दिया जाना जरूरी है। इसी प्रकार मारवाड़ियोंने भी विदेशी वस्त्रोंका व्यापार छोड़नेकी इच्छा जाहिर की है। वे मुझे इस कामके लिए धनतक दे रहे हैं, पर उनका कहना है कि जबतक लोग विदेशी वस्त्र खरीदना बन्द नहीं करते, व्यापार बन्द करना उन कठिन है। वे कहते हैं कि उन्हें खद्दरसे कोई विरोध नहीं है, पर जबतक खादीके खरीददार न हों तबतक वे विदेशी वस्त्रोंका व्यापार बन्द नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि हमें गायोंकी रक्षा करनी है तो हमें चमारका धन्धा अपनाना पड़ेगा, देशके तमाम चलियोंको अपने हायमें लेना पड़ेगा। देशमें सिर्फ एक चलिय ऐसा है, जिसमें मारे गये पशुओंकी खालें नहीं खरीदी जातीं। देशमें आज लाखों पशु काटे जाते है। अपनी मौत मरनेवालोंकी अपेक्षा इन पशओंकी खालें ज्यादा महँगी होती हैं, क्योंकि मरे हुए जानवरको घसीटनेसे खाल खराब हो जाती है। अतः ऐसी खालोंको बेचनेमें कठिनाई होती है। अतः, धन्धा जोरोंसे चले, इस दृष्टि से ये कारखाने सिर्फ मारे गये जानवरोंकी खालें खरीदते हैं। आप लोग जो जूते पहनते हैं, वे ऐसे ही चमड़े के बने हुए हैं। आपको यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सिर्फ मरे हुए पशुओंकी खालका ही इस्तेमाल किया जाये। और इस खयालसे चमारोंको समझाना पड़ेगा कि उनका क्या कर्तव्य है। उन्हें सिर्फ मरे हुए पशुओंकी खालका ही इस्तेमाल करना चाहिए। दूसरे उन्हें मरे हुए पशुओंका मांस खाना भी छोड़ देना पड़ेगा। यदि हम ऐसा नहीं करते तो गोरक्षा असम्भव है। हमें देशकी आर्थिक स्थितिको अच्छी तरह समझ लेना है। यदि नगरवासियोंके लिए पर्याप्त दूधका प्रबन्ध किया जा सके तो हो सकता है, गो-वध काफी कम हो जाये। बहुत सारे चर्मालय भी मारे हुए पशुओंपर ही निर्भर करते हैं। यदि पशु-वध कम हो जाये तो इन कारखानोंकी संख्या भी कम हो जायेगी।