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१६२. पत्र : एस्थर मेननको

५ अक्तूबर, १९२५

प्रिय एस्थर,

इन दिनों में बिहारके दौरेपर हूँ। अभी मैं देवघरमें हूँ। यह बड़ा रमणीय स्थान है। आज मेरा सोमवार है। तुम्हारा लम्बा पत्र मेरे सामने है। मुझे हमेशा तुम सबका ध्यान बना रहा है। तुम पूरी तरह स्वस्थ हो गई हो और यह स्वास्थ्य-लाभ एक भारतीय औषधके सेवनसे हुआ है, यह जानकर मुझे बहुत तसल्ली हुई है। मैं उम्मीद करता हूँ कि स्वस्थ होकर तुम आगे अपना स्वास्थ्य बनाये रखोगी।

कुमारी पीटर्सन अगले वर्ष के प्रारम्भमें डेनमार्क जानेवाली हैं; यह बहुत अच्छी बात है। उनको आराम करना चाहिए। यह भी खुशीकी बात है कि वे स्कूलको बहुत अच्छी स्थितिमें छोड़कर जायेंगी। उसकी सफलताके बारेमें मुझे तो कोई सन्देह था ही नहीं। केवल धैर्यकी आवश्यकता थी। बनावटीपन और स्वार्थपरताके इस युगमें लोग हर नई या असाधारण चीजको शंकाकी दृष्टिसे देखते हैं।

क्या तुम भी पोर्टोनोवोमें हो? या मेननको अपनी रुचिके अनुकूल कुछ मिल गया है?

बेशक, तुम सब चरखा संघमें शामिल हो रहे हो। क्या तुमने उसका संविधान पढ़ लिया है?

एक-दो महीने पहले एक डेनिस महिलाने मुझे बड़ा प्यारा खत लिखा था। डेनमार्क जानेका अवसर पाकर मुझे सचमुच बहुत खुशी होगी। लेकिन जबतक अहिंसा भारतकी मिट्टीमें, आजकी अपेक्षा कहीं ज्यादा गहरी जड़ें नहीं जमा लेती, तबतक भारत छोड़नेकी मेरी कोई इच्छा नहीं है। मैं जानता हूँ कि अहिंसा ही सत्य है, लेकिन हो सकता है, मैं उसे जीवनमें पूरी तरह न उतार सका होऊँ। इतना मुझे मालूम है कि मैं सत्य और अहिंसाके बिना जी नहीं सकता।

यदि तुम मेरी जीवनी लिखना चाहती हो, तो तुम्हें आश्रममें कई महीने बिताने होंगे और हो सकता है कि दक्षिण आफ्रिकाकी यात्रा भी करनी पड़े तथा चम्पारन, खेड़ा और शायद, पंजाब भी जाना पड़े। यदि इसे सम्यक् रूपसे करना हो, तो। काम काफी बड़ा है। इन्हीं स्थानोंपर मैंने अहिंसा धर्मको, जैसा मैं उसे जानता हूँ, कार्य-रूप देनेका प्रयत्न किया।

तुम सबको स्नेह तथा बच्चोंको प्यार,

तुम्हारा,
बापू