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बिहारके अनुभव—१

मेरी नम्र सम्मतिमें, उनके काममें एक खामी यह है कि अन्तमें वे इन भोले-भाले लोगोंसे ईसाई बननेकी अपेक्षा करते हैं। इन जगहोंमें मुझे उनके कुछ स्कूल देखनेका भी अवसर मिला। यह सब देखकर तो मुझे बड़ा सुख मिला, लेकिन साथ ही मुझे इन धर्म-प्रचारकों और हिन्दू कार्यकर्त्ताओंके बीच संघर्षके भी आसार दिखाई दिये। हिन्दू कार्यकर्त्ताओंको हो, मुंडा और दूसरी जातियोंके बीच अपनी सेवाको ग्राह्य बनानेमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर ईसाई धर्म-प्रचारक भी धर्मान्तरणके प्रच्छन्न उद्देश्यको छोड़कर सिर्फ मानवीय दृष्टिसे ही उनकी सेवा करें तो कितना अच्छा हो! लेकिन, मैने मिशनरियोंके सम्मेलनमें तथा कलकतमें अन्य ईसाई संगठनोंके सम्मुख जो बातें कहीं, उन्हें यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं है।[१] मैं जानता हूँ कि किसीके सलाह देनेसे ईसाइयोंके प्रयत्नोंमें ऐसा कान्तिकारी परिवर्तन नहीं हो सकता, और किसी गैर-ईसाई व्यक्तिके सलाह देनेसे तो, चाहे उस सलाहके पीछे कितनी भी सदाशयता क्यों न हो, इस बातकी और भी कम सम्भावना है। यह परिवर्तन तभी सम्भव है, जब स्वयं सम्बन्धित व्यक्तियोंको ऐसा लगने लगे कि यह चीज जरूरी है या फिर इसके लिए ईसाइयोंमें कोई आम आन्दोलन हो। इन जातियोंके बीच भक्त कहे जा सकने योग्य लोगोंकी अच्छी खासी तादाद है। ये लोग खादीमें विश्वास रखते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों चरखा चलाते हैं। अपने हाथकी बनी खादी पहनते हैं। इनमें से बहुत-से लोग चरखोंको अपने कन्धों पर लादकर मीलोंका फासला तय करके आये थे, और जिस सभामें बोलनेका मुझे सुअवसर मिला उसमें मैंने उनमें से लगभग चार सौ लोगोंको बहुत मनोयोगपूर्वक चरखा चलाते देखा। उनके अपने अलग भजन हैं, जिन्हें वे समवेत स्वरमें गाते हैं।

छोटा नागपुरमें

मैने छोटा नागपुरकी अपनी लगभग पूरी यात्रा मोटर गाड़ियोंमें ही तय की। सड़कें काफी अच्छी हैं और उनके दोनों ओरके दृश्य बड़े सुहावने हैं। चोईबासासे हमें लौटकर फिर चक्रधरपुर आना पड़ा और वहाँसे मोटरमें बैठकर हम राँची पहुँचे। रास्तेमें हम खूटी तथा एक-दो और स्थानोंपर रुके। हम ६ बजे शामको राँची पहुँचे। महिलाओंकी एक सभाका आयोजन पहलेसे ही किया गया था। मैं नहीं समझता कि सभाके संयोजकगण या उपस्थित महिलाएँ यह मानकर कि मैं तो देशबन्धु स्मारक कोषमें पैसा देनेकी अपील करूँगाही पहलेसे ही तैयार बैठे थे। लेकिन, चूंकि मैं किसी भी सार्वजनिक सभामें इसके लिए अपील करनेसे शायद ही चकता हूँ, इसलिए इस सभामें भी इसके लिए अपील कर बैठा। अधिकांश महिलाएँ बंगाली थीं। बहुत-सी इसके लिए पहलेसे तैयार नहीं थीं और इसलिए उनके पास देनेको पैसे नहीं थे। अतएव उन्होंने कोषके लिए अपने आभूषण ही दे दिये, जिनमें से कुछ काफी वजनी थे। अपने प्रिय नेताकी स्मृतिका सम्मान करने के लिए इन बहनोंको अपने आभूषण आदि खुशी-खुशी देते देखकर आत्माको बड़ा तोष प्राप्त हो रहा था। कहने की जरूरत नहीं कि इन सभाओं में मैं स्पष्ट बता देता हूँ कि सारी भेंटोंका उपयोग चरखा और खादीके प्रचार-प्रसारमें किया जायेगा।

 
  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ४४९–५५ और "भाषण : ईसाइयोंकी संभामें", ४–८–१९२५।