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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


राँचीमें मुझे गलकुण्ड[१] नामक एक छोटे-से गाँवमें ले जाया गया। यहाँ एक उत्कट खादी प्रेमी सज्जन, बाबू गिरीशचन्द्र मजूमदार, सहकारी समितिके तत्त्वावधानमें हाथ कताईका प्रयोग कर रहे हैं। यह प्रयोग अभी प्रारम्भ ही हुआ है। अगर ठीक संगठन किया गया और उपयक्त किस्मके चरखोंसे काम लिया गया तो अन्य स्थानोंकी तरह वहाँ भी चरखेके कामके सफल होने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

राँचीमें शौकिया नाटक मण्डलियोंकी ओरसे देशबन्धु स्मारक कोषके लिए दो नाटक भी खेले गये। एक नाटक बंगालियोंने खेला और एक बिहारियोंने। चूंकि ये नाटक शोकिया नाटक मण्डलियोंकी ओरसे खेले जानेवाले थे, इसलिए मुझे उनके निमन्त्रण स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हुआ। लेकिन बंगालियोंका नाटक देखकर मुझे बड़ी निराशा हई। उनका प्रदर्शन तो व्यवसायी नाटक मण्डलियोंकी पूरी नकल ही ही था। तमाम पोशाकें विदेशी वस्त्रोंसे बनी हुई थीं। मुँहपर रंग-रोगन भी लगाया गया था, जबकि मैं आशा यह कर रहा था कि ये प्रदर्शन संयत ढंगके होंगे और कमसेकम पोशाकें तो खादीकी बनी हुई होंगी। निदान, बिहारियोंका नाटक देखनेका निमन्त्रण

कार करते हए, मैंने यह शर्त रख दी कि अगर आप लोग चाहते हैं कि मैं आपका नाटक देखू तो पोशाके खादीकी बनवानी होंगी-और सो भी केवल इसी प्रदर्शनके लिए नहीं, बल्कि सभी प्रदर्शनोंके लिए। और मुझे बड़ी प्रसन्नता और आश्चर्य भी हुआ, जब वे तत्काल इस बातपर राजी हो गये। कुछ ही घंटोंमें सारे हेर-फेर करने थे; लेकिन उन्होंने सब-कुछ कर लिया और व्यवस्थापकने मुझे दिये गये वचनकी घोषणा करते हुए ईश्वरसे प्रार्थना की कि वह उन्हें अपना वचन पूरा करने में सहायता दे। बिहारियोंके नाटकमें चमक-दमकके अभावके कारण जो कमी रह गई थी, उसे मेरे खयालसे, जो परिवर्तन किये गये, उसकी सौम्यताने पूरा कर दिया। मैं सभी शौकिया नाटक मण्डलियोंसे इन परिवर्तनोंको अपनानेका अनुरोध करता हूँ। दरअसल तो ये पेशेवर नाटक मण्डलियाँ भी जिनमें देशभक्तिकी भावना हो, इन परिवर्तनोंको आसानीसे अपना सकती है, और इस प्रकार भारतके करोड़ों मानवोंके आर्थिक उत्थानमें योगदान कर सकती है, चाहे यह योगदान कितना भी थोड़ा हो।

इस यात्राके दौरान और भी बहुतसे दिलचस्प अनुभव आये; जिनमें से एक तो उद्योग विभागके सर्वश्री एन॰ के॰ राय और एस॰ के॰ रायके साथ मेरी बातचीत और दूसरा कासिमबाजारके महाराजाकी दानशीलताके परिणाम-स्वरूप स्थापित ब्रह्मचर्याश्रमको मेरी भेंट। लेकिन, इस सबकी चर्चा तो यहाँ छोड़नी ही पड़ेगी। राँचीसे मोटरमें सवार होकर हम हजारीबाग पहुँचे। वहाँ जो सामान्य कार्यक्रम थे उनमें भाग लेनके अलावा मुझे सेंट कोलम्बस मिशनरी कालेजके विद्यार्थियोंके सामने भाषण भी देना पड़ा। यह कालेज बहुत पुराना है। यहाँ मैं विद्यार्थियों के सम्मुख समाज-सेवापर बोला,[२] और यह समझानेकी कोशिश की कि चारित्र्यके बिना समाज-सेवा असम्भव है

 
  1. ऐसा लगता है कि गाँवका यह नाम गांधीजी गलतीसे लिख गये है। देखिए "टिप्पणियाँ", २२–१०–१९२५ का उपशीर्षक 'भूल-सूधार।'
  2. देखिए "भाषण : विद्यार्थीयोंकी सभामें", १८–९–१९२५।