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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहयोगियों और असहयोगियों, राजाओं-महाराजाओं और विभिन्न जाति तथा मतके उन सभी लोगोंके लिए खुले हुए है जिनका आर्थिक साधनके रूपमें चरखे और खादीके कारगर होनेमें विश्वास है।

पत्र-लेखकने यह भी लिखा है कि :
पाँच-सूत्री बहिष्कारके बिना चरखा संघका कार्यक्रम पूरा नहीं हो सकता।

मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता। कोई कारण नहीं कि नामीसे-नामी वकील भी खादी न पहने, वास्तवमें ऐसे कुछ वकील खादी पहन भी रहे हैं। कोई कारण नहीं कि सरकारी स्कूलोंमें भी विद्यार्थी और अध्यापक खादी न पहनें। और जहाँतक स्वराज्यवादियोंका सम्बन्ध है, पार्षदगण तो खादी पहन ही रहे है। उन्होंने खादीको विधान सभा और विधान परिषदोंमें भी दाखिल कर दिया है। कई खिताबयाफ्ता लोग भी बराबर खादी ही पहनते हैं।

पत्र-लेखकका अन्तिम प्रश्न यह है :
अगर कट्टर असहयोगी कांग्रेससे निकाल दिये जाते हैं और उन्हें चरखा संघमें भी स्थान नहीं मिलता तो क्या वे अपना एक अखिल भारतीय संघ कायम कर सकेंगे?

यह प्रश्न बहुत बेतुके ढंगसे पूछा गया है। कांग्रेससे कभी किसीको निकाला नहीं जाता। जब लोग बहुमतका काम अपनी अन्तरात्माके विरुद्ध पायें तो वे स्वयं कांग्रेससे बाहर निकल सकते हैं; और वास्तवमें ऐसा प्रसंग आनेपर करते भी यही है। किन्तु, बहुमत अगर अल्पमतवालोंकी अन्तरात्माके अनुकूल नहीं बन पाता तो इसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता। और अगर ऐसे असहयोगी हों जिन्हें इस कारणसे कि कांग्रेस कौंसिल-प्रवेशका समर्थन करती है, उसमें बने रहना अपनी अन्तरात्माके खिला जान पड़ता है, तो वे बखूबी उससे अलग हो सकते हैं। बल्कि मैं तो यह भी कहूँगा कि अगर वे कांग्रेस में रहकर कौंसिल सम्बन्धी कार्यक्रमके रास्तेमें रोड़े अटकाना चाहते हों तो उनका निकल जाना ही बेहतर है। मेरे विचारमें, कांग्रेस संगठनको आज इस बातकी जरूरत है कि वह बिना किसी आन्तरिक द्वन्द्व और झगड़े के काम कर सके। यह तो मैं बता ही चुका हूँ कि चरखा संघमें जिस प्रकार सहयोगियोंके लिए स्थान है। उसी प्रकार असहयोगियोंके लिए भी है। यदि इस सबके बावजूद ऐसे असहयोगी हों जो एक अलग अखिल भारतीय संगठन बनाना अपना कर्त्तव्य मानते हों तो वे शौकसे ऐसा कर सकते हैं। लेकिन मैं तो ऐसे किसी कामको जरा भी ठीक नहीं समझुँगा। अगर असहयोगी लोग फिलहाल व्यक्तिगत रूपसे ही असहयोग करते रहे तो इतना काफी है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ८-१०-१९२५